नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Wednesday, December 28, 2016

पशु: आर.वैरमुत्तु

ओ मनुष्य / नमन करो पशु को
विशेषकर / वंदना करो बंदर की
अपने पूर्वजों को / कर पहला नमस्कार
हर पशु/ तेरा गुरु
कुछ सीखा / सीखकर
आचरण कर तदनुसार
पशु हम से हैं
कहीं अधिक स्वाभिमानी
हाथी के पाँव पड़ा हो
कोई हाथी
सुनी नहीं ऐसी खबर

चूहों ने
ढोई नहीं पालकी
बिल्ली की

हिरणों ने
दबाए नहीं पैर / भालू के

या तो / मुक्त गगन में
या /मृत्यु की खाई में
बीच का जीवन/जीते नहीं पशु

जंगल में
नही होता
अन्धविश्वास
वहाँ
शुतुरमुर्ग भी करते नहीं कौतुक
आग पर दौड़ने का
मदोन्मत मनुष्य / बोल
हाथी को छोडकर
किसी जानवर का
फूटता है मद?
दिखा सकते हो
वन के अंदर
कोई
ईसाई तोता, हिंदू बाघ
जैन बगुला, बौद्ध बैल
सिक्ख शेर, या इस्लामी हिरण ?

ओ मनुष्य !
भले ही/ तुम जितना
बन ठन लो,
दसों उँगलियों में
पहन लो अंगूठियाँ
परख-चुनकर/पहन लो
जरीदार रेशमी अंगरखा
फिर भी
रहेगी सुंदर नारी ही
मनुष्य जात में / नर नहीं
हाँ यदि/पाना चाहते हो
नर में सोंदर्य ?
पशु को छोडकर
कोई गति नही
हरिणों में सींग हो
तो बारहसिंगे का
हाथियों में
दांत होते हैं
गजराज के
मयूरों में पंख हो
तो कलाभ का
कुक्कुट-जाति में
कलगी रखता है मुर्गा
यह जात का मानू ?
नहीं होता नगर में
होता बस वन में

ओ मनुष्य !
गरूर मत कर / यह सोचकर
कला पर अधिकार
केवल तुम्हारा है
इस धरती का
पहला गीत / पवन का गीत
दूसरा गान/तरंगों का तराना
तीसरा तराना/ कोकिल काकली
तेरा गान/चौथा ही है
कोयल की तर्ज पर
गाने लगा/तू ?
गुरु की वंदना करने से पूर्व
वत्स!
कोयल की वंदना कर
ओ मनुष्य / मान ले
मर मिट गया तू
बनेगा क्या तेरे शरीर से ?
तेरी चर्बी से/बन सकते हैं
बस सात साबुन
तेरे कार्बन से/बनेंगी / नौ हजार पेंसिलें
शरीर के लोहे से / बनेगी
केवल एक कील
जानता है / पशु का
मोल क्या है ?
मृत बाघ का
नख भी बनता
आभूषण
बनता लेखनी
कपोत पंख भी
बनेगा बटुआ
चमड़ा सांप का
जूता बनेगी
पशु की खाल
आयी समझ में तेरी!
मर कर भी रहता है
मूल्य पशु वर्ग का ?

ओ मनुष्य
गौर किया है
देवताओं के वाहन पर?
एक देव ने अपनाया वृषभ को
एक आरूढ़ हुआ मयूर पर
एक बैठ गए शान से चूहे पर
एक विराजे खगराज गरुड़ पर
अभी तक / सारे देवता
पशुओं से ढोये गए/ मानव से नहीं
क्या देवता नहीं जानते
मानव से/ढोने को कहा जाए/ तो
वह तस्करी कर देगा?
विश्वास करता है
मनुष्य/ इश्वर पर
किन्तु इश्वर / नहीं करता विश्वास
मनुष्य पर
जीने के लिए ही जन्मा है
तनिक बदल ले
अपनी जीवन शैली
रीत बदलकर देखो तो
खुद बांग देकर
जगाओ मुर्गे को/बड़े तडके
कंधे पर/लिए तोता
चलो न दफ्तर!
मनभावन बिल्ली के संग
करो/मध्याहन का भोजन
कितने दिन / देते रहोगे
अपनी पत्नी को
स्नेहविहीन चुंबन दो
खरगोश के बच्चों को भी
तुम्हारे बिस्तर पर
सजे/एक तीसरा तकिया,
उस/छोटे-से तकिये पर
सो जाये/तुम्हारा प्यारा पिल्ला
विधानसभा में /पशु-समस्या पर
उठाओ/नियमापत्ति का प्रश्न
गाय के थन के नाम
घोषित करो/राजपत्रित अवकाश
सप्ताह में एक दिन

बंद करो दो/हाथी की
सर्कसी कंदुक-क्रीड़ा
यह
हाथी जाति के लिए
अंतर्राष्टीय अपमान है

सम्मान करो/पशुओं का
वे सभी/वेश बदले
मानव हैं/परिणाम विकास की
कड़ियाँ हैं
प्यार करो/पशुओं से
वे
तुम्हारे प्यार के लिए तरसते
पंचेन्द्रिय शिशु हैं

अंत में –
केवल एक प्रश्न/जवाब दो
दिल पे हाथ रखकर
कुछ पशु ऐसे हैं / जो
मनुष्यों द्वारा वंदनीय हैं
क्या यहाँ पर / ऐसे मानव भी हैं
जो/पशुओं द्वारा वंदनीय हों

तेलगु मूल : श्री आर.वैरमुत्तु
हिन्दी रूपान्तर : डा. एच बाल सुब्रहमण्यम

प्रस्तुतीकरण: गोविन्द जुनेजा

2 comments:

  1. वाह गोविन्द जी, क्या खजाना दिया है आज आपने नवोत्पल को...एक संग्रहणीय कविता..!

    भो मानवों अब तो आखें खोलो...ये देखो कहाँ हो असल में तुम....ना तुम अपनी थाती सजो पाए हो और ना ही भविष्य के बारे में ही आश्वस्त हो...ये समझ लो..शायद कुछ आगे सकारात्मक हो फिर....!

    गोविन्द जी , आभार इस मोती से भेंट करवाने के लिए..!

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  2. सत्य है, मनुष्य पर इससे अधिक लहराता व्यंग नहीं लिखा जा सकता है ।

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