नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Friday, October 23, 2009

नयी पौध की नीम के पेड़ पर अर्द्धनारीश्वर चर्चा

अंतरतम से और सर्वत्र से संवाद अल्केमिस्ट में वृद्ध पाउलो कोएलो भी चाहते हैं और जवान चेतन भगत भी. one night @call centre में चेतन भगत inner call की बात करते हैं. सरल इंग्लिश में लिखी गयी किताब, प्रवाहमयी. पर ९०% किताब, व्यक्ति के भौतिक विलासों पर है तो अचानक अंतिम १०% भाग में लेखक को inner call की याद आ जाती है. शायद लेखक कहना चाहता है, कि इस inner call को ignore करके कुछ भी संभव नहीं है, कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता. पर ये इतना अचानक घटता है उपन्यास में कि नाटकीय लगने लगता है. वैसे विषयवस्तु की दृष्टि से पुरी किताब साधारण लग रही होती है कि वह नाटकीय मोड़ आता है और पढ़ना निष्फल नहीं जाता.  

राही मासूम रजा की 'नीम का पेड़' और नागार्जुन की 'नयी पौध' भी पढ़ी. 'नयी पौध' स्वतंत्रता पश्चात, स्वाभाविक परिवर्तनों का बिगुल बजाते युवाओं पर देसी ढंग से प्रकाश डालता है, नागार्जुन की अपनी खास शैली, जबरदस्त चमत्कृत करती है और खासा रोचक है. पर यही 'नयी पौध' रजा के 'नीम के पेड़' से उसकी छांह छीन लेती है, जबकि आजादी के कुछ दशक हो चुके हैं. रजा की प्रशंसा करूँगा कि महज कुछ पन्नों में उन्होंने बेहद कसी हुई कहानी कहते हुए नीम के पेड़ का दर्द बयां कर दिया है. मुझे मौका मिला 'विष्णु प्रभाकर' जी की रचना 'अर्द्धनारीश्वर' पढ़ने का. या तो मै अल्पवयस्क हूँ या निश्चित ही यथार्थ अनुभव नहीं है, इस उपन्यास के 'मूल प्रश्न ' का. अथवा इस पर मेरे विचार यों है--- स्त्री-पुरुष सम्बन्ध तर्क आधारित नहीं हो सकते, क्योंकि ये प्रतिक्षण शारीरिक व मानसिक दोनों स्तरों पर घटते-बढ़ते रहते हैं. मुझे नहीं लगता की इस सम्बन्ध को कोई निश्चित सिद्धांत दिया जा सकता है. इस आकर्षक खलील जिब्रान की टिप्पणी को भी नहीं कि --''स्त्री-पुरुष एक दुसरे का प्याला भर सकते हैं पर पीना अपने-अपने प्याले से ही चाहिए.''  

मुझे लगता है इस धरा का प्रत्येक मनुष्य, विभिन्न आयामों में अलग-अलग होता है, उसी तरह (स्वाभाविक ही है) प्रत्येक 'स्त्री-पुरुष सम्बन्ध' भी अपनी तरह का अकेला ही होता है. तर्क की गुंजायश व्यक्तिगत व उभयगत या पारस्परिक स्तर पर ही है, व्यापक स्तर पर नहीं. आदरणीय लेखक ने फ्रायड के मनोविज्ञान व भारत की प्राचीनतम विवाह-संस्था के आदर्शों में समन्वय, आज के जटिलतम समय में करने की कोशिश की है. वैसे यह उपन्यास बलात्कार के मनोविज्ञान से आधार पाता है, पर इस सन्दर्भ से बारंबार 'स्त्री-पुरुष संबंधों' पर ही टीका हुई है. अंत तक जाते-जाते, बल्कि माफ़ करिए मध्याह्न से ही उपन्यास के तर्क निरे काल्पनिक लगने लगते हैं.

(श्रीश पाठक 'प्रखर ')

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