नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Friday, April 20, 2018

दिल्ली की किताब / शचीन्द्र आर्य (दूसरी किश्त )

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(दूसरी किश्त) 

चाचा के लिए
अब जबकि कुछ देर में अंधेरा होने वाला है, सोच रहा हूँ, जहाँ से छोड़ा था, वहाँ से शुरू कैसे करूँ? यह बहुत मुश्किल प्रक्रिया है। आप अपने अंदर अतीत को उम्र में बहुत आगे बढ़ जाने के बाद पीछे मुड़कर देखते हैं। इस मुड़ने में बहुत सी बातें एक साथ कौंध जाती है पर मैं चाचा से शुरू करना चाहता हूँ। इसे गाँव से शहर में दाख़िल होने की तरह देखने से पहले इतना बताना ज़रूरी है कि इसी समानुपात में गाँव भी हममें प्रवेश करता है। वह एक बहुत पुरानी तस्वीर है, जिसमें छोटके चाचा ने मुझे गोद में ले रखा है। मम्मी उनके बगल में खड़ी हैं। चंद्रभान उनके दूसरी तरफ़ खड़े हैं। पीछे कुतुब मीनार है। तस्वीर ब्लैक एंड व्हाइट नहीं है। कलर है।

फ़ोटो पापा ने खींची है।

 ©शचीन्द्र आर्य 
यहाँ, इस तस्वीर से शुरू के पीछे सिर्फ़ एक वजह है। चाचा अपने बड़े भाई के यहाँ घूमने आए हैं। कुछ दिन साथ रह सकें। थोड़ा वक़्त बिता सकें। पापा बताते हैं, पापा चाचा को सिनेमा हाल में बिठा आते थे और तीन घंटे बाद दोबारा जाते और चाचा को घर ले आते। फ़िल्म देखने का बहुत शौक़ था। बहराइच के हरी टाकीज़ में बाहर तांगा खड़ा किया और सवा रुपए से भी कम पैसे में टिकट लेकर एक समोसे पर पूरा दिन बिता ले जाते। यह तांगा, उनका खड़खड़ा था, जो घोड़ी रखने की उनकी इच्छा के बाद मूर्त रूप लेता है। जब घर में कोचवान हो तब उनका उपयोग भी होता। दुकान का गल्ला उसपर लादते और बाबा के साथ जाकर उसे गल्ला मंडी में बेच आते। फ़िर एक मौसम आता, जब मोहर्रम के बाद बिसवां, चालीसवाँ तक दूर दूर गाँव में मेला लगता। जुलूस एक जगह आकर इकट्ठा होता और लगी हुई दुकानों से मनचाहा सामान खरीदता। बाबा की मिठाइयों की दुकान होती। चाचा उनके सहायक। कई मर्तबा तो हम भी गर्मी की छुट्टियों में उनके साथ साइकिल पर ऐसे छोटे बड़े मेलों में गए। 

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यह गर्मियों की छुट्टियाँ ही होतीं, जहाँ हम अपने स्कूल का दिया काम जल्दी से खत्म करके गाँव जाने की धुन में रम जाते। गाँव के उस पीछे खपरैल वाले घर में सटर वाला दो रंगा टेलीविज़न कैसे पहुंचा, इसका कोई हवाला हमारी स्मृति में नहीं है। हमने उसे वहीं सीमेंट की टाड़ पर रखा हुआ देखा। हर इतवार दुकान में सौदा लेने आए बच्चे, जवान सब चार बजते ही मधुमक्खी की तरह दालान में भिनभिनाने लगते। चार बजे दिल्ली दूरदर्शन से फ़िल्म आने वाली होती। छत पर लगे सौर ऊर्जा पैनल से बैटरी चार्ज होती, और उसी से टीवी चलता। वहीं ताखे वाली अलमारी में तब मंदिर नहीं बना था। वहाँ मर्फी का टेपरिकॉर्डर रखा हुआ था। इसमें मीटर वेव और शॉर्ट वेव रेडियों भी था। पास ही कैसिटों का अंबार लगा हुआ था। चाचा जो कैसिट कहते पापा यह तो गर्मियों में अपने साथ लिए चलते या कोई आता जाता तब उसके हाथों भिजवा दिया करते। इस सबमें चाचा ही ऐसी धुरी थे, जो उस गाँव में बीत रहे वक़्त से बहुत आगे चल रहे थे। हम भी जितना वक़्त गाँव पर रहते उनके आस पास घूमते रहते। एंटीना घुमाने से लेकर टीवी चलाने के सारे अधिकार इन्हीं छोटके चाचा के पास थे। हम भी शहर से इतनी दूर एक शहर को उस मशीन में खोज रहे होते। ऐसा नहीं था, हम वक़्त बिताने के लिए सिर्फ़ यही काम किया करते। नहीं। हम पापा के मामा के यहाँ जाते। रवि के यहाँ बरवाँ जाते। गिलौला से सेवढ़ा, नानी के यहाँ जाते। ख़ूब सारी तसवीरों में वह पल अपने साथ हमेशा के लिए रख लिया करते। पर आज बात सिर्फ़ चाचा की। 

कोई कहे या न कहे, जब लकड़ों की शादी हो जाया करती है, तब जो लड़का नहीं कमाता है, वह सबकी आँख में किरकिरी की तरह चुभने लगता है। चाचा इस व्याख्या में श्रम विभाजन की सैद्धांतिकी में सिर्फ़ सहायक की भूमिका में थे। बिरेन्द चाचा जब बहराइच जाते, तब ननकू चाचा दुनाक संभालेंगे। गल्ला मंडी जाना होगा तब अपने खड़ खड़े को हाँकते हुए मंडी ले जाएँगे। कभी गाहे बगाहे बाबा के साथ किसी मेले में चले गए। इसके अलावे उनके हिस्से कोई काम पड़ता हुआ नहीं दिखता। घर में खेती लायक ज़मीन होती, तब बात ही क्या होती। सब अलग-अलग तरह के पेशों में संलग्न रहते। पर ऐसा हुआ नहीं। चाचा इस विभाजन में कहीं नहीं ठहरते। चाची के आने के बाद उनका भी परिवार अस्तित्व में आया। उनके साथ एक मसेहरी, चार कुर्सियाँ, एक मेज़ आए। थोड़े दिन यह दिखे। फ़िर कुछ साल पीछे हमारी बहनें हुईं। चाचा चाची के यहाँ लगातार तीन बेटिययों के बाद दो जुड़वा बच्चे हुए जो जन्म के दस दिन के भीतर मृत्यु को प्राप्त हुए। इसके कई साल पीछे शिवम हुआ। हमारा सबसे छोटा चचेरा भाई। 

जैसे-जैसे सदस्य बढ़े, आय के सीमित साधनों में झगड़ों का उदय हुआ। संयुक्त परिवार दरअसल एक समझौते पर कायम संस्था है और जो इसे बढ़िया मानते हुए स्वर्णिम अतीत में खो जाते हैं, उनसे मुझे कुछ नहीं कहना। वह शायद बड़ों के लिहाज और लगातार अपने आत्म सम्मान को ताक पर रखकर जिंदा संस्था है, जिसमें सिर्फ़ शोषण और बर्बरता के आदिम सूत्र आज भी दिख जाते हैं। इससे बचने का एक ही तरीका था। बँटवारा। चाचा के हिस्से चौराहे पर सड़क किनारे बनी दो दुकाने आयीं। जिसका उपयोग चाचा ने किसी थोक दुकान को शुरू करने के लिए नहीं किया। वह सपरिवार वहीं चले गए। आगे टीन छाई। जगह बढ़ गयी। वह उस जगह क्यों आइए इसका चाची के पास एक ही जवाब था। जो गाँव वाला टुटहा घर मिला है, वहाँ क्या साँप बिच्छु के बीच आपन बच्चे नचाई। 

कमाई के साधन के रूप में एक ढाबली ने ले ली। एक लकड़ी की संरचना, जिसमें एक वक़्त में सिर्फ़ एक ही व्यक्ति अंदर बैठ सकता है। सिर्फ़ बैठ सकता है। खड़ा नहीं हो सकता। इसी में पान मसाले, बीड़ी से लेकर माचिस, साबुन, नमकीन, बिसकुट सब थोड़ा-थोड़ा भर लिया। सुबह होते ही दुकान खुल जाती और देर रात ग्यारह बजे तक चाचा बैठे रहते। शिवम चाचा की तबीयत खराब होने के बाद से बैठने लगा। उसने पेट्रोल बेचना शुरू कर दिया। मूँगफली और लाई भी इसके बाद अलग तखत पर रखे जाने लगे। तेल पेट्रोल पंप पर जितने का बिकता है उसमें लाने और अपने पास रखने की लागत मिलाकर दाम बताया जाता। गरीबी का अनुवाद बकरियाँ भी हो सकता है, यह चाचा के यहाँ पहली बार अनुभव संसार का हिस्सा बना। बकरियाँ पालना इसके और कसाई के हाथों बेचना तीन-चार साल पहले बंद कर दिया। पापा हर बार जाते और यही कहते। पहले पालो और फ़िर किसी को मारने के लिए बेच दो। कभी ख़ुद भी सोचा होगा। तब तय किया होगा, अब नहीं पालेंगे। इसमें मनोज कुमार पाण्डेय की कहानी, 'पुरोहित जिसने बकरियाँ पाली' का कोई योगदान नहीं है। क्योंकि उन्होंने ऐसी कोई कहानी लिखी ही नहीं है। 

इधर चार पाँच साल से चाचा को पेचीस की शिकायत कुछ बढ़ गयी। उनका मन किसी भी काम में नहीं लगता। दिन में दस दस बार से भी ज़्यादा बार मैदान फिरने जाना पड़ता। तब पिछवाड़े शौचालय बनवाया नहीं था। वह बना ही इसलिए क्योंकि झाड़ा फिरने का कोई नियत समय नहीं था । कभी भी जाना पड़ सकता था। सेप्टिक टेंक के की खुदाई के बाद पक्की छत पड़ी और सीट बिठा दी गयी। पानी लाओ और बैठ जाओ। यह दरअसल उनके अंत की शुरुवात थी। उन्हें लगा, बवासीर है। सामने किसी ने ऑपरेशन करवाया था, उसका ठीक हो गया। वह भी करवाएँगे, ठीक हो जाएँगे । यही सोच पिछले साल बहराइच में सर्वेश शुक्ला के यहाँ फागुन के बाद संतराम फूफा के साथ एक सुबह चले गए। डॉक्टर इससे भी भोले हो सकते हैं, यह पता नहीं था। चाचा ने कहा, बवासीर है। डॉक्टर तुरंत मान गया। ऑपरेशन की तारीख दे दी। चाचा वक़्त पर पहुँच गए। डॉक्टर ने पैसा लिया और ऑपरेशन के नाम पर गूदा द्वार छोटा कर दिया। कहा अब ठीक हो जाओगे। 

चाचा डॉक्टर के कहे अनुसार ठीक नहीं हुए। सूख गए। देह में जान नहीं बची। उन्हें लगता, गूदा द्वार छोटा करने से पेट में गैस बनने लगी है और झाड़ा भी ठीक से नहीं उतरता है। वह अपनी बिगड़ती स्थिति के संबंध में किसी डॉक्टर से मिलना नहीं चाहते थे। तभी एक दिन लखनऊ से रीना के सुशील आए। वह जबर्दस्ती अपने चचिया ससुर को साथ ले गए। वहाँ डॉक्टर ने देखा। सीटी स्कैन करवाया। उसने कहा मलाशय (रेक्टम) का कैंसर है। यह बात चाचा को सीधे बताई नहीं गयी। सुशील का दिल्ली फ़ोन आया। पापा से बात हुई। गाँव का एक बाभन मिला, जो बहराइच में किसी श्याम गंभीर डॉक्टर के यहाँ ड्राइवरी करता था, उसने कहा, डॉक्टर साहब से बात करता हूँ। लखनऊ में किसी पहचान के अस्पताल में सस्ते में करवा देंगे। इस ऑपरेशन में गूदा मार्ग को बंद कर देते और मल निकासी के लिए प्लास्टिक की नली कहीं से निकाल देते। 

एक ऑपरेशन से ऐसी हालत में पहुँच जाने के बाद इस दूसरे ऑपरेशन के लिए वह मान नहीं रहे थे। किसी तरह कीमो थेरिपी के लिए माने। कीमो के ग्यारह दौर के बाद रेडियो थेरेपी शुरू होती। लेकिन पहली बार में ही हालत इस कदर बिगड़ गयी कि वापस अस्पताल जाने की हिम्मत नहीं हुई। चाचा ने तो कह दिया, घर ले चलो। जो होगा देखे लेंगे। हम सब वहीं थे। मूक दर्शक बनने के सिवा हमारे पास कोई विकल्प नहीं था। हमें पता है, उनके पास अब गिनती के छह आठ महीने बचे हैं, पर चाह कर भी उन्हें बता नहीं सकते। पता नहीं उन्हें कैसे इस बात का एहसास हो गया। एक रात कहने लगे, नियामत भी लखनऊ आए थे। ठीक नहीं हो पाये। मैं भी ठीक नहीं होऊंगा। एक व्यक्ति हमारे सामने हार रहा है, हम कुछ नहीं कर पा रहे थे। ऐसा नहीं है वह ठीक नहीं होना चाहते थे। उनके मन में था, किसी तरह उनके शरीर में ताकत आ जाये। वह कहते, पहले, जब तबीयत ठीक थी, तब पता नहीं कितने किलोमीटर लगातार चल सकते थे। आज की तरह थोड़े कि छत से उतरते हुए हाँफने लगते। यह दुख लगातार बढ़ता रहा। कम हुआ ही नहीं। 

यह जुलाई की बात है। तब सीमा की शादी तय नहीं हुई थी। लड़के वाले आकर देख चुके थे। तारीख़ पर कहने लगे, नवरात्र के बाद बात करेंगे। लगता है चाचा अपनी उम्र को लेकर बिलकुल स्पष्ट हो गए थे। वह सिर्फ़ शादी में बैठे रहना चाहते थे। दिवाली के पहले लखनऊ दोबारा आए। मैं दिल्ली से उनका पैट स्कैन लेकर वहाँ पहुँच रहा था। गाड़ी पाँच घंटा लेट हो गयी।  जिसे सुबह सात बजे पहुँचना था, वह साढ़े बारह के लगभग चारबाग पहुंची। रिपोर्ट मेरे पहुँचने से पहले मोबाइल से अस्पताल पहुँच गयी। मेरा किंग जार्ज पहुँचना बेकार हो गया। डॉक्टर ने गंगा राम के कराया स्कैन देखा भी नहीं। सीधे अगले सम्बद्ध विभाग में फ़ाइल भेज दी। ओपीडी का वक़्त एक बजे ख़त्म हो गया। डॉक्टर ने कहा, कल सुबह आना। जिस ऑपरेशन के लिए तीन महीने पहले मना कर चुके थे, उसके लिए मान तो गए, पर इस बार डॉक्टर तय्यार नहीं हुए। कहने लगे, क्रिटिकल स्थिति है। शरीर में ख़ून नहीं है। अच्छा यही है, अब अपने परिवार के साथ रहें और वह उनकी जितनी सेवा करना चाहते हैं, कर लें। कभी भी कुछ भी हो सकता है।

इन ब्यौरों में हमारे भीतर चाचा के न होने की कोई कल्पना घर नहीं बना पायी। हम सोच ही नहीं पाये कि अगले साल इन दिनों चाचा कहीं नहीं होंगे। मैं लगातार इतनी बार उन्हें देखता रहा और अंदर ही अंदर उस दृश्य, जिसमें उन्हें आख़िरी बार देखुंगा, उसे गढ़ने लगा। मुझे हर बार लगता, चाचा जब नहीं होंगे, यही क्षण होगा, जो मुझे याद रह जाएगा। हमारे अंदर चाचा की जो छवि थी, वह आज के बदहाल चाचा की नहीं थी। हमारी यादों में वह एक सेहतमंद, तंदुरुस्त चाचा ही रह गए। हमें लगता, जिन्हें हम अपने सामने अभी देख रहे हैं, वह हमारे चाचा नहीं हैं। बार बार कितनी ही यादें कौंध जाती। तीन साल पहले गजरा लेने दिल्ली आए थे। कैसे बरवां से लौटते वक़्त बहराइच में डायमंड पर लगी कोई फिल्म देखी थी। वह दिन जब मेट्रो खाली रहा करती थी, चाचा माल रोड पर खड़े हैं, पीछे विश्वविद्यालय सेटशन है। मुझे आज तक यह बात समझ नहीं आई, हमारे वह चाचा जो टीवी के बगैर एक दिन भी गुज़ार नहीं सकते थे, वह कैसे दिल्ली से लाये टेलीविज़न को ठीक करवाए बिना रह गए? उनके अंदर के हमारे चाचा कहाँ चले गए थे? 

हम जब गोण्डा से छोटी लाइन की पैसेंजर पकड़ कर बहराइच रेलवे स्टेशन पर उतरते थे, यही चाचा अपना खड़खड़ा लेकर हमारा इंतज़ार किया करते थे। कैसे टुक टुक करते इक्का चलता रहता था। आज उनकी हालत यह हो गयी कि बिना सहारे एक कदम चलना भी दूभर हो गया। देह इतनी दुर्बल हो गयी, कि वह न चाहते हुए भी दयनीय होते गए। शरीर में ख़ून तो बन नहीं रहा था, चेहरा एकदम काला पड़ता गया। कभी दर्द से इतना कराहते, कोई भी उनके उस दर्द को चाह कर भी कम नहीं कर पाया। एक ऐसा भी समय आया, जब वह अपनी नित्य क्रियाओं पर नियंत्रण खोने लगे। कभी कोई उन्हें उठाने वाला नहीं होता, तब भी बिस्तर खराब हो जाता। हमें देखा, इससे बचने के लिए उन्होंने एक रास्ता निकाला। वह अपने तकिये के नीचे काले रंग की थैलियाँ रखने लगे। इससे ज़्यादा ख़राब और नहीं लिख सकता। हमने अपने नानी को अपनी आँखों के सामने मरते हुए देखा है। एक पल पहले वह थीं और एक पल बाद वह नहीं थीं । लेकिन चाचा का इस कदर एक पल में कितनी ही मर्तबा मरते रहना देखा नहीं जाता। 
दो महीने पहले, फरवरी की बारह तारीख़ को सीमा की शादी थी। सबकी यही एक कामना थी। किसी तरह शादी ठीक से हो जाये। कोई अनिष्ट न हो। हम सपरिवार वहाँ थे। मैं कुछ पहले पहुँच गया था। चाचा इस शादी की तय्यारी को बैठे बैठे देखते रहना चाहते थे। लेकिन बहराइच में हुए ऑपरेशन के बाद उनका सीधे बैठना दुश्वार हो गया। वह अब ऐसी हालत में थे, जहां वह अपने संपर्कों का किसी भी तरह कोई उपयोग नहीं कर सकते थे। उनकी किसी भी राय का क्या हो रहा है, इसे जाँचने का कोई तरीका उनके पास नहीं बचा था। वह चुपचाप बिना कुछ कहे सब देख रहे थे। हममें इतनी हिम्मत नहीं हुई कि उनके पास कुछ देर बैठकर बात कर लिया करते। इस बीमारी ने उन्हें सिकोड़ दिया था। एक बहुत हल्के कंबल को ओढ़े वह सारा दिन दुआरे चारपाई पर लेटे रहते। भारी रज़ाई में दम घुटने लगता और उसे हटाने की ताकत तक अब नहीं रह पाई थी। फ़िर कमरे में कहाँ अकेले पड़े रहते, यही सोच कितनी भी ठंड हो वह वहाँ से हटे नहीं । 

शादी बरसात के बावजूद ठीक से हो गयी। हम उसके चार दिन बाद सोलह को चलकर सत्रह को दिल्ली आ गए। ठीक  हफ़्ते भर बाद भोला मामा का फ़ोन आया। शुक्रवार की रात थी। पापा सो गए थे। साढ़े ग्यारह बज रहे होंगे। मामा बोले, जीजा का बोल बंद हो गया है। सांस उल्टी चलने लगी है। चले आओ। एक धागा, जो हमारे बचपन से आज तक हमें जोड़ रहा था, वह चिटकने वाला है, यह बहुत पास से हम देख आए थे। चाचा ने जीने की अपनी सारी इच्छा सिर्फ़ सीमा की शादी तक रोक रखी थी। वह भी किसी तरह उस दिन तक अपने को जिंदा रखना चाहते होंगे। यह ठान लेने के बाद आदमी हमारे चाचा की तरह हो जाता है। इस ज़िंदगी की उम्मीद को धूमिल पड़ता देख, वह ओझल हो जाना चाहते होंगे। कैसे भी करके इस दुख, असहायता, दुर्बलता के दिनों से भाग जाना चाहते होंगे। कितने ही सपने उन्होंने देखे होंगे और वह ऐसे ही अधूरे रह गए होंगे। दो दिन बाद इतवार आया। रात के साढ़े बारह बजे फ़ोन की घंटी बजी। चाचा अब नहीं थे। 

मेरे मन में वह अंतिम दृश्य बार बार कौंध जाता है, जब हम शादी के बाद दिल्ली के लिए लौट रहे थे और उन्होंने छोटी बहन को पूछा और उसे पास बुलाकर बिदाई के स्वरूप कुछ रुपये दिये होंगे। हम वहाँ से अभी चले भी नहीं हैं, कि वह चारपाई पर लेटे लेटे दूसरी तरफ़ मुँह फेर लेते हैं। शायद उन्हें आभास हो गया था, अब वह हम सबको अपनी बची ज़िंदगी में दोबारा कभी नहीं देख पाएंगे। उनका यह दुख इसी तरह व्यक्त कर सकता था। वह हमारी किन यादों में डूब गए होंगे, कह नहीं सकता। पर हमारे हिस्से के गाँव में चाचा एक ऐसे पात्र थे, जिनके न होने से वह जगह हमेशा के लिए खाली हो गयी, जो सिर्फ़ उनके होने से भरी हुई थी। हमारी कल्पना में वह चाचा का घर चाचा के न होने के बाद कैसे हो गया होगा, सोच भी नहीं पा रहा। चाचा क्यों हमारे इतने पास थे, इसकी कोई ठोस वजह नहीं है, जिसे अभी तक न कहा हो। 
  
(क्रमशः)