नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Wednesday, March 28, 2018

#48 # साप्ताहिक चयन: "टुकड़ा-टुकड़ा अनुभव ...." / पूनम अरोड़ा

पूनम अरोड़ा

नवोत्पल के इस अंक में  कहानी और  कविता को संगीत के साथ मिलाकर अपनी आवाज में एक नया स्वरूप देने वाली पूनम अरोड़ा जी की कविता का चयन किया गया है  आप ने इतिहास और मास कम्युनिकेशन मे परास्नातक की उपाधि हासिल की है । पूनम जी हिंदी और विश्व साहित्य के पठन में गहरी रूचि रखने वाली हैं तथा सिनेमा की बारीकियों को भी भलीभाँति समझती हैं , जिस का प्रभाव भी आप की लेखनी पर सहज ही दिखता है। अपनी दो कहानियों 'आदि संगीत' और 'एक नूर से सब जग उपजे'  के लिए आप को  हरियाणा साहित्य अकादमी का युवा लेखन पुरस्कार मिल चुका है। 2016 में लल्लनटॉप द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में आप की कहानी 'नवम्बर की नीली रातें' पुरस्कृत है और वाणी प्रकाशन से एक किताब रूप में प्रकाशित हुई है।



आज इस कविता पर  टिप्पणी लिखने के लिए अपनी सहज स्वीकृति श्री शिव किशोर तिवारी जी ने दी है। शिव किशोर जी भारतीय प्रशासनिक सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी हैं , पर सरकारी कामों मे सदैव उलझा रहने वाला ये मन, साहित्य की सूक्ष्मतम बारीकियों से भी बख़ूबी वाकिफ़आप की साहित्यिक दृष्टि और अध्ययन दुर्लभ है।  आप की लिखी हुई विवेचनात्मक समीक्षाएं पढ़ना एक गंभीर परंतु सुखद अनुभव होता है । आप ने बांग्ला , असमिया , सिलहटी और अङ्ग्रेज़ी के अनुवाद का कार्य किया है।
आइये आज कविता पढ़ते हैं पर टिप्पणी सिर्फ पढ़ेंगे नहीं बल्कि लिखना भी सीखते हैं 




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टुकड़ा-टुकड़ा अनुभव

By: Anjana Tandon

मेरे पास अदृश्य हवा को रोकने का कोई तरीका नहीं था
तो मैंने उसे कहा 
आओ
हवाओं
देखो मेरा पालना

और मेरे मुंडन के समय उतरे बाल वहीं एक कोने में रखे हैं
पान के पत्ते में बंधे

मैं अपना संवाद जारी रख पाती
इससे पहले ही 
हवा ने एक तेज़ झौंके से मेरी डरी हुई आत्मा ले ली

मेरे होंठों पर 
आखिरी संवाद की हल्की लहर अभी बनी ही थी
कि मोक्ष की निराशा ने 
मेरी काया के तपते हुए वक्ष हथेलियों में थाम लिए
मनगढ़ंत नृत्य की किसी पहेली में उलझे हुए
हवा के सुडौल हाथों में मेरे फ़ाख्ता से वक्ष

अब तुम्हें रोना होगा 
हवा ने मुझसे कहा.
और मेरे मुलायम बाल काट दिए
मैं हँस दी

मैंने सोचा आग से शायद बच जाऊं मैं
लेकिन उसमें भी तो तुम्हारी स्मृति थी
और मेरी हँसी भी

उस आग की लपटों में 
कितनी ऊँची तक चली जाती थी मेरी हँसी

मैं बेहिसाब और अर्थहीन कल्पनाओं के मोह में अपना ही तिरस्कार करती गई
क्योंकि जानती थी 
कि सच्ची कला एक मृत्यु है
प्रेम की उस कुँवारी आभा की तरह 
जिसे स्वप्न में भी छूना घृणित है

यह सब एक पागलपन की तरह है
और अँधेरा है कि अपनी उपस्थिति में 
ब्लैक होल बनता जा रहा है मेरे लिए

मैं इस अँधेरे में 
उमर खय्याम के मोहभंग को ओढ़ लेना चाहती हूँ
एक ग़ज़ल बन जाना चाहती हूँ 


[पूनम अरोड़ा]

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शिव किशोर तिवारी 

केंद्रीय कथ्य या समेकित भाव पूनम अरोरा की कविताओं में प्राय: क्षीण होता है। उसकी जगह कई अलग-अलग स्थितियाँ, टुकड़ा-टुकड़ा अनुभव और खंड-खंड विचार प्रकट होते हैं। इस तरह की कविता वस्तुत: जीवंत मानसिक और भावनात्मक प्रक्रियाओं के अधिक निकट है। पाठक को वह आस्वाद्य होगी यदि प्रत्येक स्थिति या भावखंड को अलग-अलग समझे और अन्विति की अपेक्षा को गौण बनाकर रखे।
प्रस्तुत कविता की शुरू की पंक्तियां किसी शारीरिक,भावनात्मक या बौद्धिक परिवर्तन से जुड़ी हैं -
‘मेरे पास अदृश्य हवा को रोकने का कोई तरीका नहीं था
तो मैंने उससे कहा
आओ
हवाओं
देखो मेरा पालना
और मेरे मुंडन के समय उतरे बाल वहीं एक कोने में रखे हैं
पान के पत्ते में बँधे

मैं अपना संवाद जारी रख पाती
इसके पहले ही
हवा ने एक तेज़ झोंके से मेरी डरी हुई आत्मा ले ली’

कवि का वांछित अर्थ कदाचित बहुवचन  ‘हवाओं से ही व्यक्त होता है। हवायें काव्य-सृजन के संवेग और किशोर वय (तथा उससे जुड़े शारीरिक परिवर्तनों और आवेगों) का रूपक बनती हैं।तात्पर्य यह है कि कवि अपने को इन आवेगों-संवेगों के लिए तैयार नहीं पाती। यहां पालना और मुंडन के बाल इस तैयारी के न होने की भावना के रूपक हैं, न कि वास्तविक बचपन के।

परंतु सृजन का संवेग आ ही जाता है और शंकितमना कवि की आत्मा पर अधिकार कर लेता है। इसी प्रकार का अर्थ किशोर वय के संदर्भ में भी ग्रहण करेंगे।

अगली छ: पंक्तियों में देह के बिंब हैं। मुक्ति की आशा नहीं है। स्त्री और कवि के रूप में जो नियति वाचक के हिस्से आई है वह अपरिहार्य है। इस अनुभव से उपजी हताशा कवि के दुश्चिंता से तप्त वक्ष अपने हाथों में थाम लेती है। इस बिंब का यह अर्थ हो सकता है कि हताशा ने कवि को पूरी तरह जकड़ लिया है। यह अर्थ भी संभव है कि हताशा से कवि के तप्त हृदय को एक प्रकार की ठंडक मिलती है। नियति को स्वीकारने से चित्त शांत होता है। दूसरा अर्थ ग्रहण करें तो इस बिंब में वक्रोक्ति (अलंकार नहीं) का चमत्कार है। दूसरे बिंब में स्पष्ट हो जाता है कि कवि ने वक्ष शब्द का प्रयोग बहुवचन में क्यों किया है। ‘फ़ाख़्ता-से वक्ष’ कलात्मक सृजन की बाह्य अभिव्यक्ति हैं। वे स्वयं के रचे किसी नृत्य में रत हैं।“हवा के सुडौल हाथों में वक्ष” विलक्षण बिंब है जो एक साथ सुडौल स्तनों, सृजन-शक्ति की कलात्मक अभिव्यक्ति, स्तनों और हृदय के बीच के रहस्यमय संबंध (अर्थात् हृदय के भावों का यौवन से संबंध) तथा पहले के बिंब का प्रतिपक्ष सब कुछ द्योतित करता है। कविता के इस अंश में वाचक की भाषा अधिक पटु है, इसलिए पहले भाग और इसके बीच एक कालखंड का अंतर कल्पित करना होगा। परंतु उसके बाद की ये पंक्तियां शुरू की पंक्तियों से अधिक मेल खाती हैं –

‘अब तुम्हें रोना होगा
हवा ने मुझसे कहा और मेरे मुलायम बाल काट दिये
मैं हंस दी’
लगता है जैसे हम पीछे चले गये हैं, कि ये पंक्तियां दस पंक्तियों के बाद आनी थीं न कि पंद्रह पंक्तियों के बाद। मैं इसके दो कारण सोच पा रहा हूँ – पहला यह कि यह कविता स्मृति के आधार पर लिखी गई है और स्मृतियाँ रैखिक नहीं होतीं और दूसरा यह कि जीवन के किसी चरण में बीते चरणों का एक अंश बचा रहता है।दूसरे शब्दों में,यादें किसी क्रम में नही आतीं, बेतरतीब आती हैं और जीवन का हर अध्याय पूर्व अध्यायों से कुछ लेता है। इन पंक्तियों में रोना स्त्री और कवि के जीवन की वास्तविकता का रूपक है। जीवन तो कठिन होगा ही, सहानुभूति के विस्तार के कारण कवि दूसरों के दु:खों को भी अनुभव करेगी। मुलायम बालों का काटना बचपन की निर्दोष सरलता के अंत का रूपक है। “हँस दी” अविश्वास का द्योतक है – ऐसा भी होता है कहीं?

वाचक की हँसी को अगले बिम्ब से जोड़ा है –
‘मैंने सोचा आग से शायद बच जाऊँ मैं
लेकिन उसमें भी तो तुम्हारी स्मृति थी
और मेरी हँसी भी
उस आग की लपटों में
कितनी ऊँची तक चली जाती थी मेरी हँसी’
आग कई क़िस्मों की है –दु:ख की, प्रेम की, वासना की- परंतु यहाँ कवि ने सबसे बड़ी आग प्रेम में असफलता को कल्पित किया है। वह जीवन के सारे संतापों का प्रतिनिधित्व करती है। वाचक कवि को एक भोली उम्मीद थी कि कम से कम इस ताप से बची रहेगी। पर ऐसा नहीं हुआ। आग उसकी आशा की हँसी को भी भस्म कर गई। बल्कि आशा की हँसी ने आग में घी का काम किया –“कितनी ऊँची तक चली जाती थी मेरी हँसी”। पर यह आग फिर भी प्रिय की स्मृति और अपनी हँसी का वास बनकर कवि वाचक के साथ रहेगी।
इसके बाद की छ: पंक्तियाँ स्वतंत्र कविता की तरह हैं। कवि को लगता है कि उसने अपने सृजनशील स्व को निरर्थक विकल्पों (प्रेम,सुख आदि) के फेर में नकारा है। इसका कारण वह यह कल्पित करती है कि अपनी सृजनशीलता में निमज्जित होना एक तरह की मृत्यु है (अत: कवि को उससे भय लगता है)। इस मृत्यु का उपमान यह है –

‘प्रेम की उस कुँवारी आभा की तरह
जिसे स्वप्न में भी छूना घृणित है’
एक अभौतिक तत्त्व की उपमा एक और अभौतिक तत्त्व से देना पाठक का काम आसान नहीं करता। परंतु अभिप्राय यह प्रतीत होता है : प्रथम प्रेम में शरीर-तत्त्व की अनुपस्थिति उसे सबसे सर्वाधिक पवित्र अनुभव बनाती है; वैसे ही कला में पार्थिव-शरीरी अनुभवों को उनकी शारीरिकता से मुक्त करना होता है।
अपनी वर्तमान स्थिति कवि वाचक को पागलपन और अँधेरे की तरह भ्रमयुक्त लगती है। अस्तित्व एक ब्लैकहोल बनता जा रहा है जिससे कोई किरण नहीं निकलती। कवि इस स्थिति की परिणति का अनुमान भी नहीं कर पाती, जैसे कोई ब्लैकहोल के रूप का अनुमान नहीं कर सकता। इस स्थिति में कवि की यही कामना है –

‘उमर खय्याम के मोहभंग को ओढ़ लेना चाहती हूँ
एक ग़ज़ल बन जाना चाहती हूँ’
कई विद्वानों ने उमर ख़य्याम की रुबाइयों को धर्म, ईश्वर, समाज आदि से उनके मोहभंग की उपज बताया है। कवि उसी मोहभंग की अवस्था को प्राप्त करना चाहती है और ख़ुद एक ग़ज़ल बन जाना चाहती है।ग़ज़ल बन जाने की इच्छा को इस कल्पना से जोड़कर देखिए कि कला मृत्यु की तरह है।

इस टिप्पणी का उद्देश्य कविता को पढ़ने में पाठक की मदद करना है। मैं एक व्याख्या प्रस्तावित करता हँ ओर उम्मीद करता हूँ वह पाठकों पर उद्दीपन (Stimulus) की तरह काम करेगी। कविता का साहित्यिक मूल्यांकन करना यहाँ अभिप्रेत नहीं है। फिर भी शिल्प के बारे में कुछ कहना ज़रूरी है। कविता में हवाओं को मैंने रूपक कहा है, परंतु कोई चाहे तो प्रतीक भी कह सकता है।रूपक और प्रतीक का अंतर बहुत बार स्पष्ट नहीं होता। इस कविता में भी इस तरह की अस्पष्टता है। इस अस्पष्टता के कारण कविता का आरंभ अनिश्चयपूर्ण (tentative) है। पहली दस पंक्तियों में यह कहना यह है कि वाचक को अपने अंदर होने वाले नाटकीय परिवर्तन का भान हो रहा है। उसे यह भी पता है कि यह परिवर्तन अपरिहार्य है। परंतु वह अपने को अप्रस्तुत पा रही है और उसके मन में संशय है।इस कठिन मन:स्थिति को “अदृश्य हवा” का रूपक या प्रतीक अपेक्षित नाटकीय रंग नहीं दे पाता, यद्यपि पालना व मुंडन वाले बाल शुद्ध रूपक हैं और सशक्त हैं। अनिश्चय भाषा में भी दिखाई पड़ता है –
1.       पहली पंक्ति में हवा और तीसरी पंक्ति में हवाओ।
2.       चौथी पंक्ति में ‘देखो’ के साथ मेल बैठाने के लिए “उतरे बाल वहीं एक कोने में” की जगह “ उतरे बाल जो वहीं एक कोने में” होना चाहिए था।

सौभाग्य से बीच में शिल्प पर पकड़ बेहतर हो जाती है। वक्षों के दो बिंबों में महीन तरीक़े से दो अलग-अलग मन:स्थितियों को व्यक्त किया गया है। ऊपर व्याख्या में उल्लेख हो चुका है। परंतु यहां भी “आख़िरी संवाद की हल्की लकीर” सुंदर होते हुए भी भ्रम पैदा करती है कि कविता का यह भाग कालक्रम की दृष्टि से पहले भाग के मिनटों बाद घटित होता है। यह संभव नहीं है। पालने को निकट महसूस करने वाली वय और अपने स्तनों की बात करने वाली वय में बरसों नहीं तो महीनों का अंतर चाहिए।
कविता के मध्य में आने वाले अन्य बिंब भी सशक्त हैं। “मुलायम बाल काट दिये” हृदयग्राही बिंब है। आग का बिंब मात्र तीन छोटी पंक्तियों में पूरी एक कथा कह जाता है।

आख़िरी पंक्ति पर मेरे मन में आया – ग़ज़ल क्यों,रुबाई क्यों नहीं?

[शिव किशोर तिवारी]

Thursday, March 15, 2018

#47 # साप्ताहिक चयन: "शाम का साथी ...." / सुधांशु फिरदौस


“ हमें कविताओं में सौम्यता को लाना होगा, जबकि प्रेम तो आवश्यक है ही। अपने आसपास देखिये, सबसे ज्यादा हमले किस पर होते है ? सौम्यता पर ही न, जैसे स्त्रियों, बच्चों और प्रकृति पर । इसीलिए मैं प्रकृति पर लिखता हूँ !" 

एक साक्षात्कार में ये कथन दिया था सुधांशु फिरदौस जी ने ।  
सुधांशु फिरदौस 

सुधांशु फिरदौस जी आज हिन्दी के युवा कवियों में शीर्ष के नामों में से एक हैं। हिंदी वालों के साथ ही साथ उर्दू अदब के आशिक भी आप की लेखनी पर फिदा हैं। BHU के विद्यार्थी रहे सुधांशु जी गणित के छात्र और अध्यापक हैं। पर जीवन के समीकरणों ने आप की रुचि कविता, साहित्य और कला की तरफ शुरुआत से ही मोड़ कर रखी हुई है।

आप की कविता ‘शाम का साथी’ पर टिप्पणी लिखने हेतु अपनी सहमति दी है युवा कवि एवं कुशाग्र आलोचक अविनाश मिश्र जी ने। अविनाश जी संप्रति एक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन भी कर रहे हैं।  

आइए देखते हैं कि इस अद्भुत युग्म ने आज नवोत्पल के लिए क्या नया स्वाद गढ़ा है।

 [ डॉ गौरव कबीर ]
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छाया: गौरव कबीर 

शाम का साथी

डूबते हुए सूरज के साथ
रक्ताभ होते आकाश का हल्का नीलापन
मुझे मेरे अंदर किन्हीं अतल गहराइयों में डुबो रहा है
लगभग सारे पक्षी अपने बसेरों की ओर उड़ चले हैं
नदी किनारे मछलियों से बात करने में मसरूफ
एक छुट गया अपने झुंड से


अपनी व्याकुलता और उदासी के साथ
आज की शाम मेरे साथ सिर्फ वही है



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जब परिचय गैरजरूरी हो उठता है, हिंदी कविता में उस आयु और अस्मिता तक आ चुके सुधांशु फ़िरदौस की कविता ‘शाम का साथी’ को अगर इसके शीर्षक के बगैर कहीं प्रस्तुत या उद्धृत किया जाए, तब यह किसी लंबी कविता का एक अंश प्रतीत हो सकती है. लेकिन यों है नहीं, क्योंकि आठ पंक्तियों की यह एक मुकम्मल कविता है.

सुधांशु ने अपनी कविताओं की इधर जो दुनिया बनाई है, वह अछूते विषयों और ‘विडंबनाओं के विस्तृत’ से निर्मित हुई और हो रही है. लेकिन एक कवि की ‘रोज बनती दुनिया’ में कुछ तत्व और असर बहुत स्थायी होते हैं, वे तमाम बदलावों के बीच भी नहीं बदलते. इस अर्थ में देखें तो देख सकते हैं कि सुधांशु की कविताएं तब सबसे ज्यादा सुंदर नजर आती हैं, जब उनमें लोक और प्रकृति के बिंब आते हैं. यह सुखद है कि उनके अब तक के कविता-संसार में यह सुंदरता प्राय: घटित होती रही है.

इस घटित होते रहने में अपनी मूल काव्याभिव्यक्ति को पाने की कवियोचित छटपटाहट सुधांशु में देखी गई है. यह उनके लिए बतौर एक कवि अपने आस-पास को, उसकी गतिशीलता को समझते और व्यक्त करते हुए अपने अंदर किन्हीं अतल गहराइयों में डूबने की तरह रहा है, जिसका इशारा यहां उनकी एक प्रारंभिक कविता ‘शाम का साथी’ में नजर आता है.

इस कविता में अकेले होते चले जाने की प्रामाणिक प्रक्रिया और कारुणिक दृश्य — कविता में बस एक शाम भर का दिखाई देते हुए भी — कवि के अतीत और आगामी संघर्ष भरे सालों तक फैला हुआ नजर आता है. यह भविष्य को ‘आज की शाम’ में पढ़कर उसे अभिव्यक्त कर देना भी है— अपनी व्याकुलता और उदासी के साथ.

सुधांशु ने अपनी व्याकुलता और उदासी को कविता में कभी रद्द नहीं किया है. वह जीवन और संसार के कैसे भी प्रसंगों को कविता में कहें, यह ख्याल रखते हुए कहते रहे हैं कि उनकी व्याकुलता और उदासी कहीं उनसे छूट न जाए. यह ख्याल बहुत कुछ को छूटते हुए देखने और उसके बोध से पैदा होता है.

यहां प्रस्तुत कविता में सारे पक्षियों का अपने बसेरों की ओर उड़ चलना, सिर्फ पक्षियों का उड़ चलना नहीं है. यह घोर दुनियावी व्यस्तताओं की रफ्तार में एक कवि का अपनी संवेदना की वजह से अकेला पड़ जाना है.

इस अकेलेपन में सुधांशु फ़िरदौस का वास्ता इस सदी में सामने आई हिंदी कविता की उस पीढ़ी से है जो इन दिनों एक साथ अपनी उर्वरता और निर्लज्जता को जी रही है. कवि होने के दायित्व को जानने और वक्त में अपने किरदार की शिनाख्त करने के बजाय आज बहुत सारे कवि आईनों से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं. यह आत्मग्रस्तता आत्मप्रचार के संसाधनों के सहज हो जाने का निष्कर्ष है. यह पीढ़ी अपने वरिष्ठ कवियों को असुरक्षाबोध से आकुल, उनकी कविता को बहुत उपलब्ध और एक सार्वजनिक स्वीकार का मोहताज देख रही है. उनकी हरकतें नवांकुरों से भी गई-गुजरी हैं. इस स्थिति में सुधांशु ही नहीं किसी भी वास्तविक कवि का काम करना बहुत मुश्किल है, लेकिन इस दृश्य में उनका कवि हाथ का काम छोड़कर बैठ नहीं गया है. वह उसे बेहद सलीके और धैर्य से बता-सुना रहा है, जो उस पर बीता है.

सुधांशु प्रभावों से मुक्त एक मौलिक कवि-कर्म का प्रस्थान-बिंदु पार कर चुके हैं. उनके नजरिए में दूरगामिता की चाह ने उनकी कविता को समृद्धि दी है. जीवन में बहुत कुछ छूटने और ग्रामों से निकलकर नगरों-महानगरों में बसने और उनसे बराबर गुजरने के बावजूद भी उनके यहां ‘जनपद’ छूटा हुआ नहीं लगता है. उनमें एक साथ शब्द-संकोच और शब्द-बाहुल्य को पाया जा सकता है. कवि की यह विशेषता पूरी सामर्थ्य के साथ एक जनपद का समग्र दृश्य-विधान रच सकती है— कभी शब्द-संकोच के साथ, कभी शब्द-बाहुल्य के साथ.

सुधांशु ने अपने अब तक के काव्य-कौशल से जिस शब्द-शक्ति, बिंब-वैभव और अर्थ-बहुलता का प्रकटीकरण किया है, वह अपने कुल असर में उन्हें हिंदी कविता में उस आयु और अस्मिता तक ले आता है, जहां परिचय गैरजरूरी हो उठता है.

Tuesday, March 6, 2018

शराबबंदी के समय में पुलिसिया वार्तालाप - आलोक प्रकाश


बिहार में शराबबंदी के माहौल में पुलिसिया संवाद कुछ इस तरह से हो रहा होगा.

नोट:ये वार्तालाप पूर्णत: काल्पनिक है


साभार:आज तक 




1)

‘बोतल हमारे संस्कार में नहीं है सर, मालूम नहीं व्यवहार में कैसे आ गया? हमारे संस्कार में तो भंग, चरस गांजा,मटका , इस तरह की प्राकृतिक पेय रहा है. अशोक, बुद्ध और जय प्रकाश की भूमि पर ये निर्लज्जता कैसे बर्दाश्त की जाती . अत: जो किया गया वो सही किया गया. हमारे पुरुखों ने कभी बोतल को हाथ नहीं लगाया. वो सादगी पसन्द थे. गोट-धनिया वाले मसाले में पकी मछली खाते थे, भंग की गोली खाकर घुलट जाते थे. लेकिन हम तंदूर में पके मुर्गे का मुलायम रान खाने के आदि हो गये हैं. मज़ा दो गुना हो जाता है अगर साथ में गला तर करने के लिए कुछ हो . पानी से प्यास बुझती है, गले की कुचकुची नहीं जाती है. खैर, हमारे लिए मसला द्र्व का नहीं, द्रव्य का था. हम शुरू में बहुत चिंतित थे बंदी से धंधे में बहुत मंदी आएगी ऐसा लगा था हमें . मुदा, महकमे में  बहुत लोगों की तो  लॉटरी लग गई.’

‘हरिओम,हरिओम!’
‘चंद्रकान्ता भी अब रोज एक पेग लेती है, उसके चेहरे पर निखार आ गया है. जब से उसने  रम चखा है , बीयर को मुँह नहीं लगती है. वैसे जनानियों का मदिरा पान हमें पसंद नहीं है, लेकिन कुतिया के पीने पर हमें आपत्ति नहीं है.’
‘साहब के घर की सदस्या है वो, कुतिया कैसे कह दिया उसे आपने?’
‘ग़लती हो गई, ज़ुबान फिसल गई सर!’
‘हरिओम,हरिओम!’
‘पहले हमको भभक लगता था, बहुत दूर रहते थे हम अमृत पान  से. मँगनी में मिलने लगा , तो थोडा- थोड़ा चखने लगे'
'और अब गटकने लगे- क्यों उस्ताद जी'
'हाँ, ठीके बोलते हैं आप सर'
'ई क्लेक़सन का क्या करना है ?’
‘खुदरा सब आपस में बाँट लेते हैं. ‘कार्टून वला साहब को भेजवा देते हैं, रंगीन बक्सा बड़ा साहब को’
‘और तीसरका का क्या करना है सर?’
‘उ विनोदवा के बगान  में बिगवा देते हैं और, कल रेड मरते हैं उसके यहाँ पर.’
‘महादेव,महादेव! अरे! एक बात तो आपको बताया ही नहीं, कल साहब के यहाँ एक ठो बड़ा प्राब्लम हो गया था. चंद्रकान्ता और रासिका बॉल से खेल रहीं थी, बॉलवा संडास में घुस गया. समस्या जटिल इसलिए हो गई क्योंकि साहब की बचिया को वही गोल वापस चाहिये था. हम तो  नयका , उससे भी नीम्मन लाकर देने को तैयार बैठे थे. अब हमारा लाठी कब काम आता. मैनें उसे अंदर डाला . मरदूद गोल, और अंदर चला गया. अब तो दिखना भी बंद हो गया था. हम घबरा गये. रासिका का दर्द हम से देखा न जा रहा था. वो रोए जा रही थी.’

‘अरे अपनी रहती तो चार-छ: झापर लगा कर शांत करवा देता आप.’
‘अरे पूरा सुनिए न सर! बॉल निकालने के मिशन को मैनें एक चुनौती की तरह लिया. अपना हाथ जगन्नाथ.’  हम कई बार हाथ घुसा कर ट्राइ किए- लेकिन साला निकल नहीं रहा था, एकदम अंदर चला गया था. आखिर में पूरा बाँह तलक घुसा  कर उसे निकाला .’
'हरी ओम, हरी ओम!.बाँह तलक, साबुन से अच्छी तरह धोया कि नहीं फिर.’
‘आप भी बहुत मज़े लेते हैं सर!’
‘अब आप कार्टून लेकर साहब के घर चले जाइए , रामप्रवेश घर गया है, अपनी बचिया की शादी के लिए. साहब को जुतवा पहनने वाला कोई नहीं है’
'इतना भी नहीं गिरे  हैं सर कि साहब को जुता पहनाएँ हम.'
‘अरे जब संडास का मुँह, अपने हाथों से खंगाल लिया तो जूते पहनाने से क्यों परहेज कर रहे हैं. साहब साफ सुथरे आदमी हैं, पैर भी साफ सुथरा ही रखते होंगे. अपने पवित्र हो चुके हाथ से ये शुभ काम भी कर ही दीजिए. आप भी न, तिल का ताड़ बनाते हैं.’
‘ये काम हम से नहीं होगा सर’
‘ठीक है फिर सरितिया को ही साहब का जुतवा सम्हालने का जिम्मा दे दीजिए. पूरनका साहब को तो वो मालिश भी देती थी. जुतवा, नहाना धोना सब उसी की ज़िम्मेदारी थी.’
‘शिव, शिव! -ई  साहब बड़े निम्मन हैं लड़की-औरत से दूर रहते हैं.’
‘लेकिन जल्दी कुछ व्यवस्था कीजिए . जुतवा पहने बिना साहब आफ़िस में कैसे बैठेंगे. अरे, काम कोई बड़ा छोटा नहीं होता है. ई त एक मौका है साहब को खुश करने का. हम तो खुदे उनको जूते पहना दें. लेकिन वो  हमारा बहुते लिहाज करते हैं - धाख करते हैं, हमरे हाथ से नहीं पहनेगें वो…. आप इसी चौकी पर खुश हैं या फिर बॉर्डर की पोस्टिंग चाहते हैं.’
‘चाहते हैं सर - बचवा को पढ़ने बंगलोर भेजना है, बचिया की शादी करनी है’
‘फिर तो जाईये और साहब को खुश कीजिए. सरितिया मिले तो बोलिएगा कभी हमें भी दर्शन दे . सुना है बहुत मज़ा आता है उसके मालिश में.’
 ' शिव-शिव, कैसी बातें करते हैं सर?'
'हरी ओम- हरी ओम'

2)

‘सर, सरितिया को बुलाएँ क्या? रामप्रवेश छुट्टी पर गया है नहाने-धोने, जूता-गुसलखाना में तकलीफ़ होती होगी !’
‘कल यू पी बोर्डर पर वाले दारोगा साहेब आए थे.मैनें सिर्फ़ उन्हें सूचित किया की रामप्रवेश नहीं है सो, गुसलखाना साफ करने वाला कोई नहीं है अभी.फिर क्या था ,जाने से पहले गुसलखाना साफ करते हुए गये. उनको कितना भी समझाया, नहीं माने -बड़े नेक आदमी हैं, अक्क्सर मिलने चले आते हैं. वैसे बड़े साहब से कह कर मैनें ही बॉर्डर पर की उनकी पोस्टिंग सस्ते में करवा दी है. इंपोर्टेड वाइन, एक बक्सा साथ लेकर आए थे.’
‘बॉर्डर पर तो सर अब टटोल कर बोतल महसूस करने की ट्रेनिंग दी जाती है- पिस्तौल महसूस करने की नहीं’
‘अब रामप्रेवेश की कमी सिर्फ़ जुते पहनने में हो रही है. महिला कर्मचारी से ज़ूते पकड़वाना अमर्यादित लगता है हमें.सरिता देवी चौका सम्हालती हैं हमारा, अन्नपूर्णा हैं वो. उन से इस तरह का काम नहीं लिया जा सकता है. और ,हाँ इज़्ज़त के साथ नाम लीजिय उनका, समझे न उस्ताद जी. वैसे मालिश भी अच्छा करती हैं वो, मेम साहब के मायका जाने पर उन्हें सेवा का अवसर दिया जाएगा.’
'सही बात है सर. लेकिन , आप खुद से जुतवा पहने ये जँचता नहीं है मुझे. कहाँ रखे हैं जूते आपके?'
‘मालूम नहीं रामप्रवेश कहाँ रखता है मेरे जूते . हाँ, एक और बात, रेंजर साहब ने फ़ोन किया था. कारपेंटर बिरजू से उनकी कुछ कहाँ सुनी हो गई थी, उसने रेंजर को थपरिया दिया.बिरजू को चौकी पर तलब करो कल’
'शिव-शिव! क्या जमाना आ गया?'- इतने प्रतिष्ठत आदमी  का गाल लाल कर देता है, एक दो कौड़ी का आदमी.कल लाल घर ले जाकर २१ की सलामी देता हूँ उसको- अक्ल ठिकाने आ जाएँगे’
‘२१ ज़्यादा हो गया,११ काफ़ी है और, सुनिए मुँह कान मत झारना उसका - सिर्फ़ भीतरी चोट, न मालूम कब बात मीडिया तक पहुँच जाए. '
‘चिंता मत कीजिए सर, हमारा स्टिक एक दम पर्फेक्ट है. एक ज़रा भी दाग नहीं होगा,  जब पछिया बहेगा तो कराह उठेगा वो.’
'पर्फेक्ट'
‘सर एक बक्सा और स्टोर में रखवा दिया है- कल के कलेकसन का . दारोगा साहब शाम को आएँगे ,लिफाफा लेकर.’
‘वो सब तो ठीक है लेकिन मेरे जूते कहाँ हैं . बिना जूते पहने तो मैं कहीं बाहर निकल नहीं सकता हूँ….. अच्छा इस महीने की छापामारी अब तक नहीं की हमने.’
'वो हम लोगों ने प्लान कर लिया है . कल विनोदवा की बारी है'
‘ठीक है, जूते आप ढूँढ के लाएँगे या मैं घर से बाहर नहीं निकलूँ आज?’
‘अभी ढूंढता हूँ सर’
 ‘जाने दीजिए मैं किसी तरह मैनेज करता हूँ. आप डॉक्टर घोष से मिल कर आइए , मुझे उनका अपॉइंटमेंट चाहिए . अच्छा हो अगर वो घर पर आकर मुझे देख लें.’
‘क्या हो गया है आपको सर, भले चंगे दिख रहे हैं आप?’
‘आप सिर्फ़ उनसे हमारी मुलाकात की व्यवस्था कीजिए. तकलीफ़ हम उनसे डिसकस कर लेंगे. और हाँ एक बक्सा, जीप में रख लीजिएगा, डाक्टर साहब को नज़राना देना होगा’

3)

'कॉमपाउंडर साहब, डाक्टर साहब हैं क्या, मैं पास वाली पुलिस चौकी का हवलदार हूँ ?'
'सर हैं न, किसे दिखाना है?'
'अरे, डी एस पी साहब को'
‘क्या हो गया है उन्हें ?’
'रोग, गुप्त है'
‘अच्छा!’
हम जीप लेकर आए हैं, १५-२० मिनट फ़ुर्सत होगा क्या डॉक्टर साहेब को ? हम वापस भी छोड़ जाएँगे.
'सर होम विजिट पर नहीं जाते हैं'
‘साहब का मामला है, इसलिय हम आए हैं, कुछ जुगाड़ कीजिए न’
'देखिए, दो घंटे बाद का अपोंटमेंट मिल सकता है, आप कहें तो नम्बर लगा दूं'
‘अरे वो डी एस पी साहब हैं, लाइन में कैसे लग सकते हैं.आप ऐसा कीजिए, सर से मेरी बात करवा दीजिए- सिर्फ़ दो मिनट’
‘ठीक है पेसेंट को निकलने दीजिए.’
'आप कुछ मत बोलिएगा, हम बात कर लेंगे उनसे'

4)
'सर डी एस पी साहब ने आपको सलाम भेजा है'
'उनको भी मेरा सलाम भेजा देना'
‘आप बात नहीं समझे सर, उन्होनें आपको याद किया है. आपको जल्दी से अपने घर बुलाया है’
‘मैं तो नहीं जानता उनको’
'मिलंने से ही जान-पहचान होती है न सर.'
‘क्या हो गया है उनको?’
‘कोई गुप्त रोग हो गया है’
‘यहाँ बहुत सारे पेसेंट हैं, मैं जाकर नहीं देख पाउँगा उनको. बोलिए उनको ,यहीं आ जाएँ , फटाफट बिना किसी नंबर का देख लेंगे उनको.- पुलिस वालों से वैसे भी हम फीस तो लेते नहीं हैं’

5)
‘सर मैं डी एस पी हूँ ,टाउन का'
‘क्या हो गया है आपको?’
‘सुबह से मीठा- मीठा दर्द हो रहा है. कल रात में तीखा दर्द हो रहा था, ठीक से हल्का भी नहीं हो पा रहा हूँ.
अच्छा, इसके लिए आपको घबराने की बात नहीं है. शायाद एसीडीटी से हुआ होगा. खुलस्त नहीं हो रहा है?’
‘नहीं, बहुत दम लगाना पड़ता है’
‘अच्छा ठीक है, मैं कॉन्सटीपेशन की दवा भी लिख देता हूँ’
‘सर, सोमरास पान करते हैं?’
'करता हूँ , लेकिन बंदी के कारण  बहुत मुशकिल हो गया है.'
'एक बक्सा लेते आए हैं हम आपके लिए. हमारा आदमी हरेक महीने एक कार्टून पहुँचा जाएगा'
‘एक रिक्वेस्ट है सर, हमारे बड़ा साहब का साला बीमार चल रहा है, उसको साहब के घर पर ज़ाकर थोड़ा देख लेते आप. आपका बहुत नाम सुना है, साहब ने.’
'कब चलना है?'
'पूछ के बताता हूँ सर'

6)

'उस्ताद दी! अब डायरेक्ट आफ़िस चलना  है'
'दवा नहीं लेना है सर?'

'अरे, हम भले चंगे हैं, हमें कुछ नहीं हुआ है. इनको, साहब के घर पर आने का न्योता देने आए थे हम.भले आदमी हैं, राज़ी हो गये.
‘राज़ी नहीं होते तो विनोदवा के बाद इनका ही नम्बर था’
‘क्या बात है उस्ताद जी आप तो बहुत समझदार हो गये हैं’

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Thursday, March 1, 2018

#UDAY PRAKASH# : The Walls of Delhi- Book Reading: Dr. Gaurav Kabeer

दिनांक 27-2-2018 को आउट ऑफ कांटेक्स्ट बुक क्लब ने पणजी , गोवा मे श्री उदय प्रकाश जी की लिखी हुई कहानियों (दिल्ली की दीवार , मोहन दास और मैंगोसील ) के  त्रि-भाषीय पाठ का आयोजन किया । हिन्दी मे लिखी मूल कहानियों, श्री जैसन ग्रुंबाम द्वारा किए गए अङ्ग्रेज़ी अनुवाद (The Walls of Delhi ) तथा जर्मन अनुवाद का का पाठ क्लब के सदस्यों ने किया। इस अवसर पर श्री उदय प्रकाश  के रचना कर्म  तथा भारतीय साहित्य मे उनके योगदान पर भी चर्चा की गई ।


         कार्यक्रम का आरंभ अतिथि परिचय एवं स्वागत से सुश्री अर्चना नाग्वेंकर ने किया , उन्होने क्लब के बारे मे बताते हुए कहा कि इस क्लब के पाठों मे पुस्तक पढ़ कर आने कि अनिवार्यता चर्चा को भटकने नहीं देती तथा विषयांतर से बचा कर रखती है ।  इस अवसर पर श्री जैसन ने मिशिगन, अमेरिका से ही क्लब के लिए एक विशेष वीडियो संदेश भी भेजा था , जिसे सुधिजनों को दिखाया गया 


         सभागार का लेखक और अनुवादक से परिचय डॉ गौरव कबीर ने करवाया उन्होने The Walls of Delhi पुस्तक की सभी तीन कहानियों को संक्षेप मे प्रस्तुत किया तथा दर्शकों को कहानी के पात्रों, काल और विषय से भी परिचित करवाया। उन्होने श्री जैसन को अङ्ग्रेज़ी अनुवाद के लिए विशेष रूप से धन्यवाद ज्ञापित किया क्यूँ कि अङ्ग्रेज़ी ही क्लब की सार्वभाषा है जिसकी वजह से इस पुस्तक पर चर्चा संभव हो पायी।
Dr. Barbara, Archana & Gaurav Kabeer

दिल्ली की दीवार : एक नए प्रकार का लोकतन्त्र और अंजाना सा समाज जो हमारे आप के आसपास ही कहीं बसता है का सच्चा रूप है ये कहानी । एक निर्वासित मजदूर राम निवास पसिया जिसे दक्षिणी दिल्ली के एक अमीर इलाके में स्थित खाये अघाए लोगों की चर्बी घटाने वाले एक जिम  की खोखली दीवार से अकूत दौलत का पता लगता है।  इतनी दौलत उसकी ज़िंदगी बदल देती है । अपनी नाबालिग प्रेमिका के साथ आगरा पहुंचने पर एक टॅक्सी वाले द्वारा फंसा दिया जाता है और फिर वापस दिल्ली आकार उसे हासिल होती है एक गुमनाम मौत ।       
मोहनदास : निम्न जाति का एक मृदुभाषी संस्कारी लड़का मोहनदास, जो अपनी पूरी जमात मे पहला BA है लाख कोशिशों के बावजूद भी बेरोजगार है। एक इंटरव्यू के बाद बहुत उम्मीद पाल कर घर आता है , पर वो नौकरी भी उसे नहीं मिलती । कुछ साल बाद उसे पता लगता है की उसकी पहचान पर कोई और नौकरी कर रहा है , ये आदमी कोई और नहीं उसके बचपन का दोस्त है । अपनी नौकरी वापस पाने के लिए मोहनदास का संघर्ष और बार बार उसका हार जाना। कहानी का अंत बहुत दुखद है। इस कहानी बीच-बीच में आने वाला उप-पाठ समसामयिक अपवादों का ऐसा सजग दस्तावेज उपस्थित करता है जिससे पाठक सहसा स्तब्ध हो सच महसूसता रहता है। 
मैंगोसील : महाराष्ट्र का एक  गरीब जो अब शहर मे आ चुका है एक ऐसे बच्चे का बाप बनता है जिसका सर, शरीर के अनुपात मे कुछ ज्यादा ही  बड़ा होता जा रहा है । बड़े सर वाला ये बच्चा विलक्षण दिमाग का मालिक है । इस बच्चे के दिमाग मे दुनिया भर की जानकारी इकट्ठी हो रही है  और साथ ही साथ अपने अनुभवों और दृष्टि से अद्भुत सिद्धांत भी गढ़ और समझ पा रहा है।  

परिचर्चा
         
Dr. Barbara Lotz
तत्पश्चात पुस्तक पर अपनी बात कहते हुए लेखक, अनुवादक तथा वुड्सबर्ग विश्वविद्यालय की  व्याख्याता डॉ बारबरा लोट्ज़  ने बताया कि उदय प्रकाश जर्मनी मे सबसे ज्यादा पढे जाने वाले समकालीन भारतीय लेखक हैं तथा उनकी सभी कृतियाँ जर्मन भाषा में भी उपलब्ध हैं। उन्होने कहा कि उदय जी उन लोगों को स्वर प्रदान करते हैं जिनकी शायद कोई भी सुनना नहीं चाहता है । अनुवाद की परेशानियों का ज़िक्र करते हुए उन्होने बताया कि शब्द के स्थान पर शब्द रखना अनुवाद नहीं बल्कि मूल परिवेश को महसूस करवाना ही सफल अनुवाद है। उदय जी की रचनाओं के सैकड़ों अनुवाद उनकी स्वीकार्यता और उनके कथ्यशिल्प की सफलता का जीवंत उदाहरण हैं।


         डॉ तनया नाईक ने कहा कि  उदय जी की कहानियाँ ज़मीन के के इतने करीब हैं की कई बार उम्मीदों से बहुत दूर निराशा में ले जाती हैं। निराशा मे डूबी इन कहानियों को कई बार बंद करने के बावजूद पाठक इन्हें बार बार पढ़ता भी है ।
         प्रसिद्ध आर्किटेक्ट हयासिंत पिंटों ने इन कहानियों को 60 फीसदी भारत का सच और व्यवस्था को आईना दिखाने वाली बताया।        
        
Ian Macklen

ब्रिटिश पाठक इयान मैकलेन ने मोहनदास को अपनी पसंदीदा कहानी बताया तथा किताब में वर्णित भ्रष्टाचार पर हैरानी जताई । कहानी में पात्रों के चयन की विशेष रूप से तारीफ की ।    
         
Dr. Gaurav Kabeer
डॉ गौरव कबीर ने कहानी कहने के अंदाज़, शब्दो के चयन और भाषा पर लेखक की पकड़ की तारीफ करते हुए, इन कहानियों को पीढ़ी दर पीढ़ी पढ़ी जाने वाली कहानियाँ बताया । सुनो कारीगर से जज साहब तक के लेखन का ज़िक्र करते हुए उन्हों ने  कहा कि विभिन्न परिस्थितियों को दर्शाते हुए कहानियाँ लिखने वाले कथाकार और कवि श्री उदय प्रकाश आलोचना के किसी खांचे में फिट नहीं बैठाये जा सकते।

Eric Pinto
       
  एरिक पिंटों ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए दिल्ली की दीवार कहानी में पहले चैप्टर को विशेष रूप से सराहा और कहा कि जब अनुवाद इतना बेहतर है मूल कितना उम्दा होगा ।

परिचर्चा का समापन करते हुए सुश्री अर्चना नागवेकर ने कहानियों के साथ चल रहे परिदृश्य और लेखक की सूक्ष्म से सूक्ष्म बातों पर ध्यान देने की कला को अप्रतिम बताया ।  


इस अवसर पर वेल्लेरी , अरविंद, आरती, एनमैरी , ट्रावोर, डैनिश , विनय, शैलेश , सपना , एड्रियन डी कुनहा   आदि गणमान्य व्यक्ति तथा क्लब के सदस्य  उपस्थित रहे ।