नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Saturday, July 8, 2017

MOM : एक माँ,स्त्री और एक परिवार के कर्ता की नजर से .... हेमा दीक्षित


हेमा दीक्षित


'मॉम' फिल्म की कहानी कोई नई कहानी नहीं है ... हमने ऐसी कहानी पर कई फ़िल्में अलग-अलग नजरियों से देखीं हैं ...
एक टीनऐज बच्ची के गैंगरेप उससे जुड़े परिवार परिस्थितियों हमारी न्यायिक व्यवस्था उसकी खामियों, उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार, अपराधियों के बच निकलने, अन्याय के शिकार विवश क्रोध वाले आम जन और बदले का चित्रपट पर एक और अंकन ...
इस फिल्म को देखने का निर्णय हमारे 'श्री देवी' एवं श्रीमान नवाज़ुद्दीन के इश्क़ ने हमसे जबरिया करवा लिया ...
एक स्कूल टीचर के क्लासरूम और पारिवारिक जीवन के दृश्यों के साथ फिल्म चलती है जहाँ दृश्य-दर-दृश्य फिल्म आप पर पकड़ बनाने लगती है टीनएज बड़ी बेटी से तनाव और उसके कारक, मानवीय जीवन की जटिलताएं, एक वास्तविक तौर पर पढी-लिखी आधुनिक स्त्री की जीवन और उसके बच्चों की समझ दर्शाते सीमित संवादों वाले संक्षिप्त पर प्रभावी दृश्य ... स्मृति में अटकने वाले छोटे-छोटे बारीक डिटेल जिन्होंने उस रचे हुए परिदृश्य के आम और सहज होने का यकीन दिलाया ... जैसे एक दृश्य में बड़ी बेटी का कुर्सी पर पाँव ऊपर करके बैठे होना और सब कुछ सुनते हुए भी पूरी तन्मयता से नेलपेंट लगाते दिखना ... एक दृश्य में छोटी बिटिया डाइनिंग टेबल पर अपने लेटे हुए सर के साथ मुँह से आवाज़ें निकालते हुए होमवर्क करती दिखती है ... ऐसे ही अन्य तमाम दृश्य ...
फ़िल्म शुरू होने के 20 मिनटों के अंदर माँ -बेटी (श्री देवी-सजल अली) ने हम माँ-बेटी (हेमा-गौरी) का कलेजा काढ़ कर हमारी हथेलियों में ऐसे और इस कदर धर दिया कि गौरी ने पूरी फिल्म भर अपना हाथ मेरी पसीजी हथेलियों से बाहर निकालने की जरा सी भी कोशिश नहीं की ...
बरसों बाद किसी फिल्म ने छाती में हौल उठा दिया अंदर से कुछ उबल कर गले में अटक गया और दोनों की आँखों ने बार-बार गालों पर अंदर का विलाप धर दिया ...
क्योंकि यह एक फिल्म की बात नहीं है यह उस असुरक्षाबोध की बात है जो मैं माँ होने के नाते हमेशा अपने अंदर पाती हूँ 'कहीं कुछ हो न जाए' ... और जब-तब इसे गौरी के अंदर धर कर उसे इस समाज में कहीं भी कभी भी असुरक्षित होने का ... लड़की होने के कारण हमेशा सुरक्षित दायरे में रहने का ... ज्ञान देती रहती हूँ ...
फिल्म का काल आजकल का आधुनिक दिल्ली शहर और उसकी मौजूदा स्त्रियों के प्रति विशेषतौर पर बेहद असुरक्षित एवं अपराध प्रवीण संस्कृति का है...
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निर्देशक रवि उदयावर (Ravi Udyawar) के निर्देशन की कसावट हमें फिल्म के पहले दृश्य से अंतिम तक सीट से बाँधे और हमारी एडियाँ एक बेचैन कसमसाहट में उचकाए रखने में पूरी तरह सक्षम है ... एक बार भी यह नहीं लगा कि यह उनकी पहली फ़िल्म है ...
दिल्ली की सड़कों पर घूमती एक बड़ी काले शीशों वाली काली गाड़ी का लम्बा दृश्य कितना खौफ़जदा करता है और जाने कितनी ऐसी वास्तविक घटनाओं की स्मृति को दृश्य दे देता है ... बिना किसी आवाज़ के वो एक अकेला दृश्य किस कदर चीखता है ...
और उस लंबे दृश्य के बीच में एक बार गाड़ी का रुकना ... (यह शॉट दूर से और संभवत: ऊँचाई से लिया गया है ) गाड़ी, पात्र सब छोटे-छोटे से कैप्चर में पीछे का व्यक्ति और ड्राइवर उतरते हैं ... और सिर्फ अपनी जगहें ही नहीं बदलते वरन उसके पूर्व गले भी मिलते हैं ... यह गले मिलना यह विजय के भाव का डिपिक्शन बेतरह जैसे तलवार की काट की तरह गुजरता है ...
और दृश्य के अंत में अधमरी हालत में मरा जान कर गाड़ी से नीचे फेंका जाना और लात मार कर नाले में गिराया जाना ...
कुछ ही पल पहले एक बेहद प्यारी बच्ची जो अपने ही जितनी खूबसूरत पोशाक पहने नृत्य में मग्न थी जीवन के उत्सव में अपने रंग खोज रही थी ... प्रेम खोज रही थी ... वो एक नाले के गँदले पानी में उतरा रही थी ...
और उसकी माँ आधी रात उसका अता-पता खोजती बदहवास सड़कों पर घूमती है ...
इस दृश्य के बारे में लिखा क्योंकि ये मुझे होंट कर रहा है ... यह दृश्य मेरे लिए बेहद तकलीफ़ पीछा न छोड़ने वाली प्रेत यातना का सबब बन गया है ...
सिनेमैटोग्राफी और लाइटिंग, कथा और उसके पात्रों उनकी पीड़ा,कलप और विलाप को बेहद विश्वसनीय बना देती है ... यहाँ तक कि बदले की नाटकीयता भी न्यायसंगत और सहज हो जाती है ...
फिल्म आपको इस समस्या का कोई हल नहीं देती है बस क़ानून का शत-प्रतिशत पालन करने वाले आमजनों के असुरक्षाबोध (सिर्फ एक लड़की या स्त्री के नहीं वरन उसके पूरे परिवार के ) उनकी भ्रष्ट, लूपहोल्स से भरे सिस्टम के आगे निरीहता और उससे उपजे क्रोध को आवाज़ भर देती है और आपके सामने रख देती है ...
सही-गलत की टिपिकल नैतिकता को नजरअंदाज करता फ़िल्म का यह डायलॉग कि ," गलत और बहुत गलत के बीच में से चुनना हो तो आप किसका चयन करेंगे ..." बहुत कुछ कहने में सक्षम है ... क्योंकि यहाँ चुनाव सही और गलत के बीच नहीं है ...
निश्चित रूप से बहुत गलत घटित हुए का चयन ऐसे चुनाव की स्थिति में करना घोर अन्याय के साथ खड़े हो जाना होगा ...
वैसे भी जिसके साथ अन्याय हो चुका होता है किसी भी तरह का न्याय उस पीड़ित को जिस भी तरह का और जितना कुछ भी न्याय के नाम पर देता है वह उसके जीवन को पूर्ववत जीवन की सी लय और संगति में कभी भी खड़ा नहीं करता ...
हम दुःख और पीड़ा का मुँह भी नहीं देखना चाहते हैं उसके रास्तों से यथासंभव कन्नी काट कर निकल जाना चाहते हैं ... पर ... फिर भी ...
एक बार तो जरूर ही देखी ही जानी चाहिए ऐसी-वैसी जैसी-तैसी कैसी-कैसी फ़िल्में देखी जाती हैं ...
फिल्म के सभी पात्रों ने कस कर गले लगाने योग्य अपनी भूमिका का निर्वहन किया है ...
मुझे जो लगा सो कहा और आप मित्रों को रिकमेण्ड कर दी ...

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    【 हेमा दीक्षित

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