नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Thursday, July 13, 2017

#36# साप्ताहिक चयन 'वो अब भी इन्द्रधनुषी उम्मीद से है' / विमलेश शर्मा

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वो अब भी इन्द्रधनुषी उम्मीद से है

EyeShree: Click by Dr. Shreesh


वो व्यस्त है

तमाम राजनीतिक समीकरणों से परे

जीवन के व्याकरण को समझने में

उसकी सोच में अब भी बारिशें हैं

आवारा बादल है

उगता हुआ सूरज है

टिमटिमाते तारे हैं

और एक पूरा होता चाँद है

क्योंकि तमाम विचारधाराओं

समय के प्रवाह से परे

वो अब भी इन्द्रधनुषी उम्मीद से है...!



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विमलेश शर्मा 
यूं तो होशपूर्वक देखना ही शगल है कवि का; पर यह इतना आसान नहीं l ऑब्जर्व कर जज़्ब करना एक कला है, जो फिर-फिर प्रतिभा के संयोग से नाना रूपों में प्रकट होता है और कर्ता के हर क्रिया में परिलक्षित होता है l आज की कवयित्री उन चंद लोगों में हैं जो अपनी लगभग सभी भूमिकाओं में अनुकरणीय हैं- आदरणीया विमलेश शर्मा जी l 

कवि भावनाएं टटोलता है और संभावनाएं भी l जब बाकी महज गणित में उलझते जाते हैं, कवि शून्य से असीम की यात्रा कर लेता है l ऐसे में यह कविता तो महज पचास शब्दों में उस वितान को खींच देती है जिसे समझने में मर्मज्ञ कितनी और ही संरचनाएं गढ़ लेते हैं l 

इस कविता में एक 'वो ' है l 
अपने आस-पास खोजिये जैसे 'वो ' की चर्चा है इस कविता में, क्या कहीं दिखता है ! नहीं, दिखता ...? क्यूं नहीं दिखता ऐसा 'वो ' ? 
जिस सुन्दर मन वाले 'वो ' की अभिव्यक्ति हुई है उसकी परिवेश से सहज अनुपस्थिति इस कविता का मूल कथ्य है l कवयित्री का यह पात्र जैसा है वह इस समय की जरुरत है और है वह: कवि अविष्कृत प्रबल प्रखर सम्भावना l 

तो कोई है, जो जीवन समझना चाहता है l 
The Whole में उसकी रूचि जियादा है, पार्ट्स में कम l ऐसे लोग कम होते जा रहे जो चीजों की interconnectedness तक पहुँच ही नहीं रहे, बस बटोरे जा रहे उन्हें l इंडीविजुअलटी की हवस ने इतने पैने विभाजन किये हैं कि कोई बरगद तले की शीतल मद्धम बयार मानवता को सहला नहीं पा रही, जो बचे भी हैं बरगद जहां-तहां l कवि अपनी संभावनाओं वाली तत्पर सजग आँखों से निरखता है तो पाता है कि उसकी कविता का कर्ता मशरूफ है समझने में जीवन को totality में l उन शाश्वत नियमों को जानना चाहता है वो जिस ग्रामर पर मानवता का तानाबाना बुना है अनगिन थातियों ने l ऐसा नहीं है कि क्षुद्र राजनीतिक समीकरण, चालाकियां नहीं हैं आस-पास l वे हैं, पर वो इतना सक्षम है कि इनकी सीमित इयत्ता को समझते हुए स्वयं को इनसे परे रख जीवन के मूल को निरखने की चेष्टा कर रहा है l 

वो जान गया है कि जीवन कठिन गुत्थियों से निर्मित नहीं है, अपितु इसके तंतु इतने सहज हैं कि सहसा विश्वास नहीं होता सो वह अपने आसपास की हर छोटी बड़ी चीजों को महसूसता है l आश्चर्य है कि उस प्रज्ञावान की सोच में अब भी रिमझिम बारिशों की फुहारे हैं जिन्होंने इनर्शिया की मिट्टी को नहलाकर उससे उनका सोंधापन बिखेर दिया है l 

वो अलग अलग बादलों को पहचान सकता है l उनकी आवारगी के गीले झोंको को अपने दोनों गालों पर सरसराता महसूस कर सकता है l उसकी पांचो ज्ञानेन्द्रियाँ होशपूर्वक तन्मय हो सकती है परिवेश में l वह जाग्रत नायक अपने हर क्षण में उपस्थित रहने की कला में निपुण है l 

एक भरी पूरी नींद उसे आती है जिसके दैनंदिन कर्तव्यों का खाता प्रशंसनीय हो l 
यह व्यक्ति जब उठेगा तो सूरज इसके ज़ेहन में उगेगा l वह रौशनी के हर फोटान कणों से रौशन होगा l फिर रात में अपना टिमटिमाता चेहरा लेकर वह हर एक तारे के पास बैठकर बतिया लेगा l है इसके पास महाकाल का अक्षय भण्डार जिससे यह चाँद का पूरा होना देख सकता है l यह मोहक धैर्य उसके चेहरे में चांदनी भर देता है l खास है ये शख्स क्योंकि इतनी मिलावटी दुनिया में पनपकर भी, वो अब भी शाश्वत प्रतीकों में अपनी नातेदारी जोड़े रख सकता है l 

कवि का वह संभावनाशील नायक बूझ रहा है कि जीवन का नाना समयों में विभाजन दरअसल स्वयम के अस्तित्व का विभाजन है l अपने पास एक बूँद है, यह सागर की बूँद है और इस बूँद में सागर के समस्त गुणधर्म सहेजे हैं परम ने, नायक ने यह तत्व निरख लिया है l और इस महान अनुसन्धान ने जो मूल्य विकसित किये हैं नायक में उसके समक्ष वर्तमान की विचारधाराएँ इतनी बौनी हैं कि वह उनकी सुधि भी नहीं लेता l 

डॉ. श्रीश 
उसके पास इन्द्रधनुषी उम्मीदें हैं l जिनमें रंग है बरबस, अनायास, सतरंगी l पारदर्शी मन का साहस है उम्मीदें...! 

उम्मीदें ही उपजाती हैं l 

कवयित्री का नायक ही सो उम्मीद से है l 

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