नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Thursday, July 6, 2017

#35# साप्ताहिक चयन 'बचे हैं सिर्फ हाँ या ना ' / अभिनव मिश्र

अभिनव मिश्र
दौड़ते भागते सभ्यता कब मानवता का दामन छोड़ उसे दांव पर लगा बैठती है, एहसास ही नहीं होता. ऐसे में साहित्यिक हस्तक्षेप आवश्यक और निर्णायक होते हैं. इसी स्वर की कविता आज की नवोत्पल साहित्यिक चयन प्रविष्टि है. अभिनव मिश्र जी जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में शोधरत हैं, गजब का इतिहासबोध और सुन्दर संतुलन है इनमें. अभिनव काफी सक्रिय हैं अपनी लखनी के विविध रूपों से. कविता पर टिप्पणी कर रही हैं खुशबू श्रीश. खुशबू हिंदी साहित्य की औपचारिक विद्यार्थी तो है हीं साथ ही ललित कलाओं की भी सम्यक समझ रखती हैं. इनकी प्रतिभा कलम और कूंची दोनों में बराबर फबती है.
आइये यह संयोग निरखें !!!
*** 
बचे हैं सिर्फ हाँ या ना  

न कोई पुल है
जो इस पार औऱ उस पार के बीच
बनाता हो रास्ता
न कोई धागा है
जो एक ही माले मे
पिरोता हो सैकड़ो मोतियों को


कुछ हां या कुछ ना नहीं
बचे हैं सिर्फ हाँ या ना


तक रहे ऊपर से
महावीर, बुद्ध और गांधी
बच गये हैं दर्शन और इतिहास के पाठ्यक्रमो मे
स्यादवाद, मध्यम मार्ग और सर्वधर्मसंभाव;
मानो आयात किये हो हमने इन्हें
किसी सुदूर भूमि से




छायाचित्र: डॉ. श्रीश


बुद्धिजीविता भी चयनात्मक हो चली है
'हम' और 'वे' के बीच एक अजीब लड़ाई चल रही है
पात्र बदल जा रहे, प्लॉट बदल जा रहा
हम डिजिटली डिवाइड हो रहे
आर्थिक से कही ज्यादा
सामाजिक और राजनीतिक


'आनो भद्रा कृत्वा यान्तु विश्वतः'
'सर्वे भवन्तु सुखिनः'
सीमित हो गए हैं
विद्यालयी भाषणों और
विश्वविद्यालयों के सूक्तियों तक


आरोप और प्रत्यारोप क़ा भीषण दौर है
विभिन्न आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक नीतियां
किसी के लिए या तो अद्वितीय हैं
या किसी के नजर मे बेहद घटिया
इन नीतियों के अच्छे और बुरे पक्ष नहीं है


पर मुझे अब भी संभावनाओं पर यकीं है
उस पुल पर यकीन है जो पाटेगा
हमारे बीच के खाईयों को
यकीं है मुझे
कबीर, बुद्ध, महावीर और
गांधी के दर्शनों पर
हां मुझे यकीन है
हां या ना के बीच के बिंदु पर;
जहां तटस्थता से होता हो मुल्यांकन
व्यक्ति, विचार और चेतना का
पूर्वाग्रह रहित,मध्यम मार्गीय समाज के सृजन पर
मुझे अब भी पूरा यकीं है


अभिनव मिश्र 
***



ऊपर से सब कुछ ठीक लगता है. 
सब कुछ. 

पंखा चल रहा. टीवी चल रही. सड़कें कुचली जा रहीं. आसमान में जब तब विमान उड़ रहे. सब्जियां बिक रहीं बाजारों में और दुकानें लबालब हैं सामानों  से. खेत मौसम के अनुरूप रंग बदल रहे. स्कूलों में रटना जारी है कॉलेज में कैम्पस सिलेक्शन हो रहे. यों सब कुछ चलता ही रहता है. करने वाले को लगता है तब भी कि वह सब कुछ कर रहे हैं जो अब तक नहीं हुए, जबकि लोग सवालों की जगह बार बार जम्हाइयां लेना पसंद कर रहे.
ऐसे में लोगबाग़ लोग ना रहे, कबके बंट गए. 
स्वतंत्रता के मूल अर्थ में नुक्ताचीनी करके बाजार ने इसे स्वच्छंदता में परिणत कर दिया और इससे उपजी व्यक्तिवादिता की हवस ने सामाजिकता पर करार प्रहार किया. पुरातन सांस्कृतिक मूल्यों ने सामाजिकता के बचाव में मोर्चा खोल तो दिया आधुनिक लोकतंत्र में सांस ले रहे अंधी आधुनिकता के खिलाफ पर अपनी जड़ता भी छोड़ने को राजी नहीं. ऐसे में लोग आसानी से खेमों में बंट गुजार रहे ज़िन्दगी. 
अलग अलग होने का भान धीरे धीरे इतना गहरा होता जाता है कि आपस के स्वाभाविक सूत्र बिखरने लगते हैं. जो महज एक नजरिया था उसे जीवन दर्शन बनते देर नहीं लगती. यह दूरी धीरे धीरे स्पर्धा और फिर घृणा बरसाने लगती है. संबंधों की महीन रस्सियों के तंतु टूटने लग जाते हैं. सहसा लोग दो किनारों पर बसने लगते हैं. दोनों का दो सच हो जाता है और प्रत्येक अपने सच को ही सच मानने को अभिशप्त. सामाजिकता और संस्कृति के नाव व चप्पू इतने कमजोर हो जाते हैं कि दोनों किनारे अपना साझा महसूस ही नहीं कर पाते. 
तो जीवन तो डूगरता ही रहता है, ज्यों-त्यों. पर लोगों में दो किनारे उभर जाते हैं जो नासूर बन पकता रहता है. कवि देख रहा है कि कोई पुल दिख नहीं रहा. कोई ऐसा धागा भी नहीं बुना जा रहा जो अलग अलग फूलों को एक में पिरोना की मंसा रखे और शक्ति भी. माध्यम मार्ग कुम्हला गया है. लोग 'हाँ' में हैं या तो फिर 'ना' में ही. इस अजीब स्थिति को देख तो रहे ही होंगे अपने महापुरुष जिन्होंने समावेशी जीवन दर्शन की नींव रोपी होगी अनगिन संघर्षों के बीच. उनके आदर्श पाठ्यपुस्तकों में कक्षावार कलांशों में अब भी रटाये जा रहे. लगता ही नहीं कि वे आदर्श हमारे हैं. ज्ञान एक तकनीक बनकर रह गयी है जिससे सिर्फ अपना सेल्फ सेंटर्ड कोना जस्टिफाई करने में प्रयुक्त किया जाता है. आप गलत नहीं हो इसका निश्चित अर्थ यह नहीं है कि अगला गलत है फिर..., पर ठहरकर परिप्रेक्ष्यों के पड़ताल की गुंजायश दिनोदिन सूखती जा रही. 
यह एक भीषण समस्या है जो हमारी पहचान को खेमों तक धकेल रही. इसमें ही बेहतर करने की कोशिश जारी है बिना यह समझे कि इससे भविष्य दो फांक कटकर बिखर पड़ेगा. नित नयी आती तकनीकी युक्तियाँ इस विषमताओं को और धार ही दे रहीं, क्योंकि उनका प्रयोक्ता ही विभाजित मन का है. खौफनाक है यह समस्या क्योंकि यह समस्या समझी ही नहीं जा रही. यह समस्या यों समा गयी है आधुनिक मनुष्यता में कि इसका प्रभाव आतंकित कर ही नहीं रहा, सो भविष्य में भी इसके समाधान की गुंजायश क्षीण लग रही, पर नहीं...! कवि आशान्वित है. यही इतना राहत है. सांगोपांग दृष्टि बस कवि की होती है और यदि एक कवि को काली घनघोर खौफनाक रात्रि के सवेरे की एक मद्धम ही सही किरण दिख रही तो सचमुच समूचा नहीं व्यर्थ हुआ. 
कवि को यकीन है कि कालजयी दर्शनों की हमारी थाती अवश्य ही पुल बनकर मनुष्यता का विभाजन रोक लेगी. 

खुशबू श्रीश 




कविता का सबसे सशक्त पक्ष इसका विषय है, इसके लिए कवि की जितनी भी तारीफ की जाय कम ही होगी.














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