नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Thursday, July 27, 2017

#38 # साप्ताहिक चयन '‘पिता..! " / कल्पना झा


कल्पना झा 
बोर्ड की परीक्षा से माह पहले से ही टीवी देखने और मोबाइल पर पाबंदी लगा देने वाला पिता जो बहुत क्रूर दिखाई देता था,  न जाने क्यूँ रिज़ल्ट से तीन-चार   दिन पहले से ही बड़ा निर्लिप्त दिखाई देने लगता है जैसे उसे पड़ी ही न हो कि बच्चे का परीक्षा परिणाम क्या होगा ।  फिर एकाएक वही पिता रिज़ल्ट मे बहुत अच्छे मार्क्स मिलने पर झूमता है  नाचने लगता है और पूरी कॉलोनी को मिठाइयाँ खिलाता है। ये पिता आखिर ऐसा क्यूँ होता है ??? ये हमें समझ मे क्यूँ नहीं आता ??? ख़ैर ये तो बहुत साधारण उदाहरण था इससे कहीं अधिक गंभीर कविता 'पिता'  इस सप्ताह साप्ताहिक चयन के रूप में नवोत्पल सम्पादकीय समूह द्वारा चयनित की गयी  है जिसे लिखा है युवा रचनाकार कल्पना झा जी ने । प्रतिष्ठित प्रेसीडेंसी कॉलेज और कलकत्ता विश्वविद्यालय   से शिक्षित कल्पना झा जी पेशे से अनुवादक हैं आप रंगमंच कि मंझी  हुई अदाकार हैं  और संगीत में  आप कि विशेष रुचि है।  इस महत्वपूर्ण कविता पर अपनी सम्मत टिप्पणी देने का  अनुरोध स्वीकार किया है श्री सुरेन सिंह जी ने। आप श्रम प्रवर्तन विभाग में वरिष्ठ अधिकारी हैं पर मन रमता है शब्दों और उनके अनगिन अठखेलियों में। सुरेन जी ने कविता को अपनी दृष्टि से परखा है और सम्यक आलोचना की है। आइये देखते हैं यह समानांतर आयोजन !
                                                                                                                                 (डॉ. गौरव कबीर )

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गूगल इमेज 

पिता

नाटक खत्म हो चुका है
और मंच पर उस नाटक का एकमात्र पात्र खड़ा है
दर्शक ताली नहीं बजा रहे
हँस रहे हैं उस पर
लानत भेज रहे हैं
आँखों के इशारे से, उंगलियों के निशाने से
उसकी इज़्ज़त की बोटी बोटी नोच रहे हैं
खड़ा है वह सब देखते सुनते हुए
भागता नहीं कहीं
डटा रहता है
वह एक पराजित पिता है
पड़ोस में गुड्डे गुड़ियों के ब्याह की रौनक है
अपने घर फाकाकशी है
उसे कमरे के चारों तरफ कमीज की फटी हुई जेबें लटकती दिखती हैं
खाली संदूक उड़ते हैं हवा में
अनगिनत दरवाज़े दिखते हैं बाहर निकलने को
सब बंद
दिखती हैं संतानें
जो उम्र से पहले बुढ़ा जायेंगी
उसे बहुत सी आँखों के नीचे काले घेरे दिखते हैं
सूखे होठों की पपड़ियाँ चुभती हैं
रसोई में डब्बे भड़भड़ा कर गिरते हैं
उनका ख़ालीपन धक से सीने में धंस जाता है
बच्चे फिर भी भागते हैं उस ओर
कि कहीं किसी डब्बे से कुछ दाने निकल आएं
तो उसीन लिया जाये
कोई भरा डब्बा छूट गया हो कहीं
उसे कलाई में एक चूड़ी डाले एक औरत दिखती है
पूरी आस्था से वृहस्पतिवार व्रत कथा कहती हुई
कि गुरु भगवान सुंदर थाल में पीला भोजन लेकर आयेंगे
तो बच्चे अपना जन्मदिन मनायेंगे
वह सिर्फ आँख और कान बन जाता है
पराजित पिता धीरे धीरे काठ हो जाता है
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[ कल्पना झा ]

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सुरेन सिंह

कल्पना जी की कविताएं फेसबुक पर पढ़ता रहा हूँ । इन कविताओं में एक कवि का अपनी पृष्ठभूमि से जुड़ाव और उस जुड़ाव में कविमन कैसे अपनी पूरी सराउंडिंग को जोड़ता चलता है और   अपनी पृष्ठभूमि से काव्य में जो ऍप्लिकेबिलिटी लाता है उसे पाठक तक इस भांति सम्प्रेषित करता है कि उसके मन मे चित्र दर चित्र बनता जाए । 


आज प्रस्तुत कविता में हिंदी कविता का एक बहुप्रयुक्त बिंम्ब पिता को लिया गया है । पिता शब्द के साहचर्य से जितने भी मानक पिता को लेकर हमारी सामूहिक चेतना में है वो तैर जाते है ... जैसे पिता कहते ही एक शक्ति और पुरुषार्थ से भरा हुआ पुंज जो हमेशा सरमायेदार होने के साथ साथ हमारा फ्रेंड फिलॉस्फर गाइड तो है ही एक असुरक्षा भाव को सुरक्षा भाव मे बदलने वाला नॉस्टैल्जिक सा प्राणी भी है पर यहां कवि किसी घिसे पिटे नॉस्टेलगिया में नही बल्कि परिदृश्य के  बीच से एक काठ होते जा रहे पिता को पाठक के बीच इस भांति रखता है कि पाठक भी पाता है कि उसका मन तर्क से खाली हो गया है और वहां बस कुछ चित्र बन बिगड़ रहे है पिता के ... ।


 इस कविता को पढ़ने पर अनायास ही दो  तीन कविताएं याद आती है । एक है नागार्जुन की अकाल  और उसके बाद , दूसरी है कुमार विकल की पिता पर लिखी कविता तथा रघुवीर सहाय की -  दे दिया जाता हूँ । 

नागार्जुन की कविता में  अकाल में भी एक उम्मीद रहती है और वह जीवन मे उल्लास के न चुकने को पाठक मन पर अंकन करती है वही इस कविता में अकाल जैसे हालात में उम्मीद एक भ्रम है । आस्था पर यथार्थ हावी है । यह व्यवस्था से पूरी तरह पराजित हो चुके पर हार न मानने वाले पिता की दास्तान है  । जिसमे उम्र से पहले बूढ़ी होती संताने ,रसोई के खाली डिब्बों की भड़भड़ाहट और  बचे हुए दाने उसीनने की आकांक्षा ...  इन सब के बीच वो शख्स जो एक व्यक्ति होने के साथ ही  पिता भी है वह अपना पितृत्व किस भांति इस दुनिया मे बचाये रखे । जिस तरह से उसके औसत होने के संत्रास ने उसके पितृत्व पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है  वो प्रकिया केवल दारुण ही नही पाठक के लिए एक वैचारिक झनझनाहट भी छोड़ जाती है ।



अब इसी क्रम में याद आते है  कुमार विकल ,वह  कहते है  -- 

"पिता तुम्हारा शाप तो स्वीकार है 

लेकिन मेरी पराजय तुम्हारी भी हार है 

तुम्हारे  जल स्रोतों की अपनी सीमायें थी 

उनमे केवल एक उथली नदी की संभावनाएं थी"
      
 यहां कवि उस पिता की ओर से कह रहा है जिसकी केवल एक उथली नदी की सम्भवनाएं ही थी । उस उथली नदी की संभावना वाले व्यक्ति के पितृत्व को उसका परिदृश्य जब अप्रासंगिक घोषित कर देता है तब भी वह अपने मूल्यों के लिए लड़ता प्रतीत होता है ।  यही प्रतीति पाठक के लिए भी मूल्य रखती है । 


इसी तरह यह वही पिता है जिसे देखकर रघुवीर सहाय कहते है -- 
.......
"और ज़िन्दगी के अन्तिम दिनों में काम करते हुए बाप

काँपती साइकिलों पर

भीड़ में से रास्ता निकालकर ले जाते हैं

तब मेरी देखती हुई आँखें प्रार्थना करती हैं

और जब वापस आती हैं अपने शरीर में, तब वह दिया जा

चुका होता है।"
     

तो कवि यहां उस पिता का दृश्य खींचता है जो लोकतंत्र के नायकों के द्वारा लूट कर हाशिये पर धकेल दिया गया है । वह पिता अपने औसत होने के उत्सव को पूरी सराउंडिंग द्वारा मनाए जाने को देख सुन रहा है साथ ही  व्यवस्था के स्याह पक्ष में भी अपनी न्याय पाने की जो आकांक्षा है उसे नही मरने दे रहा है  , भले ही सम्वेदनाओं के क्षरण के इस काल मे वो काठ समान होता जा रहा हो । 


अंततः इस कविता पर यही कहना चाहूंगा कि कवि अपने रंगकर्म के वितान को जब पाठक तक काव्य में ले कर आता है तो उसके पास अपने माध्यम की वायबिलिटी  को एक्सटेंड करने का अवसर होता है और कल्पना जी ने उस अवसर का अच्छे से उपयोग किया है । शास्त्रीय तरीके से देखे तो काव्य का लोच और लय थोड़ी कम है और बिम्बों बरतने की सलाहियत में एक अनगढ़ता सी है  । आने वाले समय में और निखार आएगा यह पाठक उम्मीद कर सकता है । 
                                                                                                                               [सुरेन सिंह]

Thursday, July 20, 2017

#37# साप्ताहिक चयन '‘एक बात पूछना वह कभी नहीं भूलती.. कल आओगे न..! " / अभिनव उपाध्याय


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eyeshree
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 एक बात पूछना वह कभी नहीं भूलती..कल आओगे न..!

यह कहना उसके लिए  
मुश्किल था कि वह मुझे  
याद रखती है पांचो वक्त नमाज की तरह,
और कठिन था उसे यह कहना भी कि
आएगी वह मुझसे  
मिलने मंदिर में आरती के वक्त।

लेकिन आसान था उसे कहना 
कि सफेद कुर्ते की सारी बटन बंद करना जरुरी नहीं
या छूटने दो क्लास
साइकिल इतनी तेज क्यों चलाते हो?
अगर पन्ने पर खिंच जाए तिरछी लाइन तो 
या हिसाब हो जाए गड़बड़ तो 
उसे नहीं लगती कहने में देर कि,
तुम अलजेब्रा में कभी उस्ताद नहीं  
हो सकते।

मेरी आंखे देखकर वह जान जाती है 
कितनी देर सोया हूं मैं।
अब, जब शहर के दंगे ने लगा दिया है ग्रहण,
वह देख लेती है मुझे ईद के चांद में 
और मैं जला लेता हूं उसके नाम का एक दिया...!

वह मुझसे नहीं कहती कभी खुलकर 
कि वह मुझे पसंद करने लगी है,
लेकिन..
उसे अच्छी लगती है मेरी शर्ट
मेरे बैग को छूकर वह बताती है उसकी खूबी।

उसे नहीं अच्छा लगता मेरा 
किसी और से हंस के बातें करना देर तक ।
मिलने के बाद वह नहीं भूलती पूछना 
कि कुछ खाया कि नहीं
अपना ख्याल रखा करो, कितना काम करते हो..!
और हां, सड़क पर संभल कर चला करो।
एक बात पूछना वह कभी नहीं भूलती...
कल आओगे न!

अभिनव उपाध्याय
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अभिनव उपाध्याय
तेज रिपोर्टिंग का दबावजीवन की आपा-धापीउठा-पटक और की-बोर्ड की खट-पट के बीचों-बीच जाने कैसे बचा लेते हैं, दिल्ली में लगभग एक दशक से सक्रिय पत्रकारिता कर रहे अभिनव जी इतनी सी मासूमियत कि...उसका जिक्र रेशमी पन्नों पर गजब उकेर देते हैं...! सम्प्रति आप दैनिक जागरण में वरिष्ठ पत्रकार हैं।

उन बादलों की बात ही कुछ और जिनका इंतज़ार पहाड़ों की सुडौल चोटियाँ करती हैं, बादलों का इठलाना जायज है l उन तितलियों का इतराना बनता है जिनका जिक्र फूल उचक उचक कर करते हैं l उन नदियों के हर उफान का घमंड जायज है जिनके लिए महासागर की बाहें पुचकारती हैं l उस उमर के प्यार के हुलास की क्या तुलना जिसके आगे हर उल्लास फीका पड़ता है l 

यह कविता कितनी निर्दोष है, इसे पढ़ते-पढ़ते प्यार हो जाता है l इसे दो बार पढ़िए, फिर एक बार और पढ़िए; फिर देखिये दिल का टाइम मशीन बड़ी मासूमियत से कहाँ ले जाता है आपको !!!
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Thursday, July 13, 2017

#36# साप्ताहिक चयन 'वो अब भी इन्द्रधनुषी उम्मीद से है' / विमलेश शर्मा

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वो अब भी इन्द्रधनुषी उम्मीद से है

EyeShree: Click by Dr. Shreesh


वो व्यस्त है

तमाम राजनीतिक समीकरणों से परे

जीवन के व्याकरण को समझने में

उसकी सोच में अब भी बारिशें हैं

आवारा बादल है

उगता हुआ सूरज है

टिमटिमाते तारे हैं

और एक पूरा होता चाँद है

क्योंकि तमाम विचारधाराओं

समय के प्रवाह से परे

वो अब भी इन्द्रधनुषी उम्मीद से है...!



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विमलेश शर्मा 
यूं तो होशपूर्वक देखना ही शगल है कवि का; पर यह इतना आसान नहीं l ऑब्जर्व कर जज़्ब करना एक कला है, जो फिर-फिर प्रतिभा के संयोग से नाना रूपों में प्रकट होता है और कर्ता के हर क्रिया में परिलक्षित होता है l आज की कवयित्री उन चंद लोगों में हैं जो अपनी लगभग सभी भूमिकाओं में अनुकरणीय हैं- आदरणीया विमलेश शर्मा जी l 

कवि भावनाएं टटोलता है और संभावनाएं भी l जब बाकी महज गणित में उलझते जाते हैं, कवि शून्य से असीम की यात्रा कर लेता है l ऐसे में यह कविता तो महज पचास शब्दों में उस वितान को खींच देती है जिसे समझने में मर्मज्ञ कितनी और ही संरचनाएं गढ़ लेते हैं l 

इस कविता में एक 'वो ' है l 
अपने आस-पास खोजिये जैसे 'वो ' की चर्चा है इस कविता में, क्या कहीं दिखता है ! नहीं, दिखता ...? क्यूं नहीं दिखता ऐसा 'वो ' ? 
जिस सुन्दर मन वाले 'वो ' की अभिव्यक्ति हुई है उसकी परिवेश से सहज अनुपस्थिति इस कविता का मूल कथ्य है l कवयित्री का यह पात्र जैसा है वह इस समय की जरुरत है और है वह: कवि अविष्कृत प्रबल प्रखर सम्भावना l 

तो कोई है, जो जीवन समझना चाहता है l 
The Whole में उसकी रूचि जियादा है, पार्ट्स में कम l ऐसे लोग कम होते जा रहे जो चीजों की interconnectedness तक पहुँच ही नहीं रहे, बस बटोरे जा रहे उन्हें l इंडीविजुअलटी की हवस ने इतने पैने विभाजन किये हैं कि कोई बरगद तले की शीतल मद्धम बयार मानवता को सहला नहीं पा रही, जो बचे भी हैं बरगद जहां-तहां l कवि अपनी संभावनाओं वाली तत्पर सजग आँखों से निरखता है तो पाता है कि उसकी कविता का कर्ता मशरूफ है समझने में जीवन को totality में l उन शाश्वत नियमों को जानना चाहता है वो जिस ग्रामर पर मानवता का तानाबाना बुना है अनगिन थातियों ने l ऐसा नहीं है कि क्षुद्र राजनीतिक समीकरण, चालाकियां नहीं हैं आस-पास l वे हैं, पर वो इतना सक्षम है कि इनकी सीमित इयत्ता को समझते हुए स्वयं को इनसे परे रख जीवन के मूल को निरखने की चेष्टा कर रहा है l 

वो जान गया है कि जीवन कठिन गुत्थियों से निर्मित नहीं है, अपितु इसके तंतु इतने सहज हैं कि सहसा विश्वास नहीं होता सो वह अपने आसपास की हर छोटी बड़ी चीजों को महसूसता है l आश्चर्य है कि उस प्रज्ञावान की सोच में अब भी रिमझिम बारिशों की फुहारे हैं जिन्होंने इनर्शिया की मिट्टी को नहलाकर उससे उनका सोंधापन बिखेर दिया है l 

वो अलग अलग बादलों को पहचान सकता है l उनकी आवारगी के गीले झोंको को अपने दोनों गालों पर सरसराता महसूस कर सकता है l उसकी पांचो ज्ञानेन्द्रियाँ होशपूर्वक तन्मय हो सकती है परिवेश में l वह जाग्रत नायक अपने हर क्षण में उपस्थित रहने की कला में निपुण है l 

एक भरी पूरी नींद उसे आती है जिसके दैनंदिन कर्तव्यों का खाता प्रशंसनीय हो l 
यह व्यक्ति जब उठेगा तो सूरज इसके ज़ेहन में उगेगा l वह रौशनी के हर फोटान कणों से रौशन होगा l फिर रात में अपना टिमटिमाता चेहरा लेकर वह हर एक तारे के पास बैठकर बतिया लेगा l है इसके पास महाकाल का अक्षय भण्डार जिससे यह चाँद का पूरा होना देख सकता है l यह मोहक धैर्य उसके चेहरे में चांदनी भर देता है l खास है ये शख्स क्योंकि इतनी मिलावटी दुनिया में पनपकर भी, वो अब भी शाश्वत प्रतीकों में अपनी नातेदारी जोड़े रख सकता है l 

कवि का वह संभावनाशील नायक बूझ रहा है कि जीवन का नाना समयों में विभाजन दरअसल स्वयम के अस्तित्व का विभाजन है l अपने पास एक बूँद है, यह सागर की बूँद है और इस बूँद में सागर के समस्त गुणधर्म सहेजे हैं परम ने, नायक ने यह तत्व निरख लिया है l और इस महान अनुसन्धान ने जो मूल्य विकसित किये हैं नायक में उसके समक्ष वर्तमान की विचारधाराएँ इतनी बौनी हैं कि वह उनकी सुधि भी नहीं लेता l 

डॉ. श्रीश 
उसके पास इन्द्रधनुषी उम्मीदें हैं l जिनमें रंग है बरबस, अनायास, सतरंगी l पारदर्शी मन का साहस है उम्मीदें...! 

उम्मीदें ही उपजाती हैं l 

कवयित्री का नायक ही सो उम्मीद से है l 

Saturday, July 8, 2017

MOM : एक माँ,स्त्री और एक परिवार के कर्ता की नजर से .... हेमा दीक्षित


हेमा दीक्षित


'मॉम' फिल्म की कहानी कोई नई कहानी नहीं है ... हमने ऐसी कहानी पर कई फ़िल्में अलग-अलग नजरियों से देखीं हैं ...
एक टीनऐज बच्ची के गैंगरेप उससे जुड़े परिवार परिस्थितियों हमारी न्यायिक व्यवस्था उसकी खामियों, उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार, अपराधियों के बच निकलने, अन्याय के शिकार विवश क्रोध वाले आम जन और बदले का चित्रपट पर एक और अंकन ...
इस फिल्म को देखने का निर्णय हमारे 'श्री देवी' एवं श्रीमान नवाज़ुद्दीन के इश्क़ ने हमसे जबरिया करवा लिया ...
एक स्कूल टीचर के क्लासरूम और पारिवारिक जीवन के दृश्यों के साथ फिल्म चलती है जहाँ दृश्य-दर-दृश्य फिल्म आप पर पकड़ बनाने लगती है टीनएज बड़ी बेटी से तनाव और उसके कारक, मानवीय जीवन की जटिलताएं, एक वास्तविक तौर पर पढी-लिखी आधुनिक स्त्री की जीवन और उसके बच्चों की समझ दर्शाते सीमित संवादों वाले संक्षिप्त पर प्रभावी दृश्य ... स्मृति में अटकने वाले छोटे-छोटे बारीक डिटेल जिन्होंने उस रचे हुए परिदृश्य के आम और सहज होने का यकीन दिलाया ... जैसे एक दृश्य में बड़ी बेटी का कुर्सी पर पाँव ऊपर करके बैठे होना और सब कुछ सुनते हुए भी पूरी तन्मयता से नेलपेंट लगाते दिखना ... एक दृश्य में छोटी बिटिया डाइनिंग टेबल पर अपने लेटे हुए सर के साथ मुँह से आवाज़ें निकालते हुए होमवर्क करती दिखती है ... ऐसे ही अन्य तमाम दृश्य ...
फ़िल्म शुरू होने के 20 मिनटों के अंदर माँ -बेटी (श्री देवी-सजल अली) ने हम माँ-बेटी (हेमा-गौरी) का कलेजा काढ़ कर हमारी हथेलियों में ऐसे और इस कदर धर दिया कि गौरी ने पूरी फिल्म भर अपना हाथ मेरी पसीजी हथेलियों से बाहर निकालने की जरा सी भी कोशिश नहीं की ...
बरसों बाद किसी फिल्म ने छाती में हौल उठा दिया अंदर से कुछ उबल कर गले में अटक गया और दोनों की आँखों ने बार-बार गालों पर अंदर का विलाप धर दिया ...
क्योंकि यह एक फिल्म की बात नहीं है यह उस असुरक्षाबोध की बात है जो मैं माँ होने के नाते हमेशा अपने अंदर पाती हूँ 'कहीं कुछ हो न जाए' ... और जब-तब इसे गौरी के अंदर धर कर उसे इस समाज में कहीं भी कभी भी असुरक्षित होने का ... लड़की होने के कारण हमेशा सुरक्षित दायरे में रहने का ... ज्ञान देती रहती हूँ ...
फिल्म का काल आजकल का आधुनिक दिल्ली शहर और उसकी मौजूदा स्त्रियों के प्रति विशेषतौर पर बेहद असुरक्षित एवं अपराध प्रवीण संस्कृति का है...
Google image

निर्देशक रवि उदयावर (Ravi Udyawar) के निर्देशन की कसावट हमें फिल्म के पहले दृश्य से अंतिम तक सीट से बाँधे और हमारी एडियाँ एक बेचैन कसमसाहट में उचकाए रखने में पूरी तरह सक्षम है ... एक बार भी यह नहीं लगा कि यह उनकी पहली फ़िल्म है ...
दिल्ली की सड़कों पर घूमती एक बड़ी काले शीशों वाली काली गाड़ी का लम्बा दृश्य कितना खौफ़जदा करता है और जाने कितनी ऐसी वास्तविक घटनाओं की स्मृति को दृश्य दे देता है ... बिना किसी आवाज़ के वो एक अकेला दृश्य किस कदर चीखता है ...
और उस लंबे दृश्य के बीच में एक बार गाड़ी का रुकना ... (यह शॉट दूर से और संभवत: ऊँचाई से लिया गया है ) गाड़ी, पात्र सब छोटे-छोटे से कैप्चर में पीछे का व्यक्ति और ड्राइवर उतरते हैं ... और सिर्फ अपनी जगहें ही नहीं बदलते वरन उसके पूर्व गले भी मिलते हैं ... यह गले मिलना यह विजय के भाव का डिपिक्शन बेतरह जैसे तलवार की काट की तरह गुजरता है ...
और दृश्य के अंत में अधमरी हालत में मरा जान कर गाड़ी से नीचे फेंका जाना और लात मार कर नाले में गिराया जाना ...
कुछ ही पल पहले एक बेहद प्यारी बच्ची जो अपने ही जितनी खूबसूरत पोशाक पहने नृत्य में मग्न थी जीवन के उत्सव में अपने रंग खोज रही थी ... प्रेम खोज रही थी ... वो एक नाले के गँदले पानी में उतरा रही थी ...
और उसकी माँ आधी रात उसका अता-पता खोजती बदहवास सड़कों पर घूमती है ...
इस दृश्य के बारे में लिखा क्योंकि ये मुझे होंट कर रहा है ... यह दृश्य मेरे लिए बेहद तकलीफ़ पीछा न छोड़ने वाली प्रेत यातना का सबब बन गया है ...
सिनेमैटोग्राफी और लाइटिंग, कथा और उसके पात्रों उनकी पीड़ा,कलप और विलाप को बेहद विश्वसनीय बना देती है ... यहाँ तक कि बदले की नाटकीयता भी न्यायसंगत और सहज हो जाती है ...
फिल्म आपको इस समस्या का कोई हल नहीं देती है बस क़ानून का शत-प्रतिशत पालन करने वाले आमजनों के असुरक्षाबोध (सिर्फ एक लड़की या स्त्री के नहीं वरन उसके पूरे परिवार के ) उनकी भ्रष्ट, लूपहोल्स से भरे सिस्टम के आगे निरीहता और उससे उपजे क्रोध को आवाज़ भर देती है और आपके सामने रख देती है ...
सही-गलत की टिपिकल नैतिकता को नजरअंदाज करता फ़िल्म का यह डायलॉग कि ," गलत और बहुत गलत के बीच में से चुनना हो तो आप किसका चयन करेंगे ..." बहुत कुछ कहने में सक्षम है ... क्योंकि यहाँ चुनाव सही और गलत के बीच नहीं है ...
निश्चित रूप से बहुत गलत घटित हुए का चयन ऐसे चुनाव की स्थिति में करना घोर अन्याय के साथ खड़े हो जाना होगा ...
वैसे भी जिसके साथ अन्याय हो चुका होता है किसी भी तरह का न्याय उस पीड़ित को जिस भी तरह का और जितना कुछ भी न्याय के नाम पर देता है वह उसके जीवन को पूर्ववत जीवन की सी लय और संगति में कभी भी खड़ा नहीं करता ...
हम दुःख और पीड़ा का मुँह भी नहीं देखना चाहते हैं उसके रास्तों से यथासंभव कन्नी काट कर निकल जाना चाहते हैं ... पर ... फिर भी ...
एक बार तो जरूर ही देखी ही जानी चाहिए ऐसी-वैसी जैसी-तैसी कैसी-कैसी फ़िल्में देखी जाती हैं ...
फिल्म के सभी पात्रों ने कस कर गले लगाने योग्य अपनी भूमिका का निर्वहन किया है ...
मुझे जो लगा सो कहा और आप मित्रों को रिकमेण्ड कर दी ...

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    【 हेमा दीक्षित

Thursday, July 6, 2017

#35# साप्ताहिक चयन 'बचे हैं सिर्फ हाँ या ना ' / अभिनव मिश्र

अभिनव मिश्र
दौड़ते भागते सभ्यता कब मानवता का दामन छोड़ उसे दांव पर लगा बैठती है, एहसास ही नहीं होता. ऐसे में साहित्यिक हस्तक्षेप आवश्यक और निर्णायक होते हैं. इसी स्वर की कविता आज की नवोत्पल साहित्यिक चयन प्रविष्टि है. अभिनव मिश्र जी जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में शोधरत हैं, गजब का इतिहासबोध और सुन्दर संतुलन है इनमें. अभिनव काफी सक्रिय हैं अपनी लखनी के विविध रूपों से. कविता पर टिप्पणी कर रही हैं खुशबू श्रीश. खुशबू हिंदी साहित्य की औपचारिक विद्यार्थी तो है हीं साथ ही ललित कलाओं की भी सम्यक समझ रखती हैं. इनकी प्रतिभा कलम और कूंची दोनों में बराबर फबती है.
आइये यह संयोग निरखें !!!
*** 
बचे हैं सिर्फ हाँ या ना  

न कोई पुल है
जो इस पार औऱ उस पार के बीच
बनाता हो रास्ता
न कोई धागा है
जो एक ही माले मे
पिरोता हो सैकड़ो मोतियों को


कुछ हां या कुछ ना नहीं
बचे हैं सिर्फ हाँ या ना


तक रहे ऊपर से
महावीर, बुद्ध और गांधी
बच गये हैं दर्शन और इतिहास के पाठ्यक्रमो मे
स्यादवाद, मध्यम मार्ग और सर्वधर्मसंभाव;
मानो आयात किये हो हमने इन्हें
किसी सुदूर भूमि से




छायाचित्र: डॉ. श्रीश


बुद्धिजीविता भी चयनात्मक हो चली है
'हम' और 'वे' के बीच एक अजीब लड़ाई चल रही है
पात्र बदल जा रहे, प्लॉट बदल जा रहा
हम डिजिटली डिवाइड हो रहे
आर्थिक से कही ज्यादा
सामाजिक और राजनीतिक


'आनो भद्रा कृत्वा यान्तु विश्वतः'
'सर्वे भवन्तु सुखिनः'
सीमित हो गए हैं
विद्यालयी भाषणों और
विश्वविद्यालयों के सूक्तियों तक


आरोप और प्रत्यारोप क़ा भीषण दौर है
विभिन्न आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक नीतियां
किसी के लिए या तो अद्वितीय हैं
या किसी के नजर मे बेहद घटिया
इन नीतियों के अच्छे और बुरे पक्ष नहीं है


पर मुझे अब भी संभावनाओं पर यकीं है
उस पुल पर यकीन है जो पाटेगा
हमारे बीच के खाईयों को
यकीं है मुझे
कबीर, बुद्ध, महावीर और
गांधी के दर्शनों पर
हां मुझे यकीन है
हां या ना के बीच के बिंदु पर;
जहां तटस्थता से होता हो मुल्यांकन
व्यक्ति, विचार और चेतना का
पूर्वाग्रह रहित,मध्यम मार्गीय समाज के सृजन पर
मुझे अब भी पूरा यकीं है


अभिनव मिश्र 
***



ऊपर से सब कुछ ठीक लगता है. 
सब कुछ. 

पंखा चल रहा. टीवी चल रही. सड़कें कुचली जा रहीं. आसमान में जब तब विमान उड़ रहे. सब्जियां बिक रहीं बाजारों में और दुकानें लबालब हैं सामानों  से. खेत मौसम के अनुरूप रंग बदल रहे. स्कूलों में रटना जारी है कॉलेज में कैम्पस सिलेक्शन हो रहे. यों सब कुछ चलता ही रहता है. करने वाले को लगता है तब भी कि वह सब कुछ कर रहे हैं जो अब तक नहीं हुए, जबकि लोग सवालों की जगह बार बार जम्हाइयां लेना पसंद कर रहे.
ऐसे में लोगबाग़ लोग ना रहे, कबके बंट गए. 
स्वतंत्रता के मूल अर्थ में नुक्ताचीनी करके बाजार ने इसे स्वच्छंदता में परिणत कर दिया और इससे उपजी व्यक्तिवादिता की हवस ने सामाजिकता पर करार प्रहार किया. पुरातन सांस्कृतिक मूल्यों ने सामाजिकता के बचाव में मोर्चा खोल तो दिया आधुनिक लोकतंत्र में सांस ले रहे अंधी आधुनिकता के खिलाफ पर अपनी जड़ता भी छोड़ने को राजी नहीं. ऐसे में लोग आसानी से खेमों में बंट गुजार रहे ज़िन्दगी. 
अलग अलग होने का भान धीरे धीरे इतना गहरा होता जाता है कि आपस के स्वाभाविक सूत्र बिखरने लगते हैं. जो महज एक नजरिया था उसे जीवन दर्शन बनते देर नहीं लगती. यह दूरी धीरे धीरे स्पर्धा और फिर घृणा बरसाने लगती है. संबंधों की महीन रस्सियों के तंतु टूटने लग जाते हैं. सहसा लोग दो किनारों पर बसने लगते हैं. दोनों का दो सच हो जाता है और प्रत्येक अपने सच को ही सच मानने को अभिशप्त. सामाजिकता और संस्कृति के नाव व चप्पू इतने कमजोर हो जाते हैं कि दोनों किनारे अपना साझा महसूस ही नहीं कर पाते. 
तो जीवन तो डूगरता ही रहता है, ज्यों-त्यों. पर लोगों में दो किनारे उभर जाते हैं जो नासूर बन पकता रहता है. कवि देख रहा है कि कोई पुल दिख नहीं रहा. कोई ऐसा धागा भी नहीं बुना जा रहा जो अलग अलग फूलों को एक में पिरोना की मंसा रखे और शक्ति भी. माध्यम मार्ग कुम्हला गया है. लोग 'हाँ' में हैं या तो फिर 'ना' में ही. इस अजीब स्थिति को देख तो रहे ही होंगे अपने महापुरुष जिन्होंने समावेशी जीवन दर्शन की नींव रोपी होगी अनगिन संघर्षों के बीच. उनके आदर्श पाठ्यपुस्तकों में कक्षावार कलांशों में अब भी रटाये जा रहे. लगता ही नहीं कि वे आदर्श हमारे हैं. ज्ञान एक तकनीक बनकर रह गयी है जिससे सिर्फ अपना सेल्फ सेंटर्ड कोना जस्टिफाई करने में प्रयुक्त किया जाता है. आप गलत नहीं हो इसका निश्चित अर्थ यह नहीं है कि अगला गलत है फिर..., पर ठहरकर परिप्रेक्ष्यों के पड़ताल की गुंजायश दिनोदिन सूखती जा रही. 
यह एक भीषण समस्या है जो हमारी पहचान को खेमों तक धकेल रही. इसमें ही बेहतर करने की कोशिश जारी है बिना यह समझे कि इससे भविष्य दो फांक कटकर बिखर पड़ेगा. नित नयी आती तकनीकी युक्तियाँ इस विषमताओं को और धार ही दे रहीं, क्योंकि उनका प्रयोक्ता ही विभाजित मन का है. खौफनाक है यह समस्या क्योंकि यह समस्या समझी ही नहीं जा रही. यह समस्या यों समा गयी है आधुनिक मनुष्यता में कि इसका प्रभाव आतंकित कर ही नहीं रहा, सो भविष्य में भी इसके समाधान की गुंजायश क्षीण लग रही, पर नहीं...! कवि आशान्वित है. यही इतना राहत है. सांगोपांग दृष्टि बस कवि की होती है और यदि एक कवि को काली घनघोर खौफनाक रात्रि के सवेरे की एक मद्धम ही सही किरण दिख रही तो सचमुच समूचा नहीं व्यर्थ हुआ. 
कवि को यकीन है कि कालजयी दर्शनों की हमारी थाती अवश्य ही पुल बनकर मनुष्यता का विभाजन रोक लेगी. 

खुशबू श्रीश 




कविता का सबसे सशक्त पक्ष इसका विषय है, इसके लिए कवि की जितनी भी तारीफ की जाय कम ही होगी.














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