नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Thursday, June 29, 2017

#34# साप्ताहिक चयन 'छद्म संवेदनाओं को भुना लो साथी' / विहाग वैभव


विहाग वैभव 
सम्वेदनायें किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू हैं। यही उसके मूल्यों का निर्धारण करती हैं और यही हैं जो इंसान को इंसान बनाती हैं। पर तब क्या हो कि जब यही सम्वेदनायें ही व्यक्ति के शोषण का कारण बनने लगें, यही सम्वेदनायें ही व्यक्ति को इस्तेमाल होने पर विवश कर दें....!

बी एच यू के शोधछात्र ( जे आर एफ) 'विहाग वैभव' उन अत्यन्त प्रतिभाशाली युवा कवियों में हैं, जिनकी दृष्टि बड़ी गहरी और व्यापक है। आपकी कविता पर अपनी टिप्पणी का योग कर रहीं हैं प्रियांशु मिश्रा। मूलतः कंप्यूटर साइंस की विद्यार्थी प्रियांशु हिन्दी साहित्य से विशेष स्नेह रखती हैं। (डॉ. जयकृष्ण मिश्र 'अमन')

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छद्म संवेदनाओं को भुना लो साथी __________________________

साभार: विकी हाउ
छद्म संवेदनाओं को भुना लो साथी कहीं दुर्घटनाओं का यह सुअवसर निकल न जाये भीतर से जरा और दम साधो आंखों में तनिक और नमी लाओ चेहरे पर पोत लो रोना और भी अधिक कि भुक्तभोगी जान जाय कि तुम उसके दुख में उससे अधिक दुखी हो उसकी माँ को अँकवार में भींच लो बच्चे की तरह और अपनी शर्तिया वेदना से उसे तृप्त कर दो जबतक की वह तुम्हारी धूर्त संवेदना को पहचान न ले उसके दुख में सर्वाधिक करुणा उगलो और उसका सबसे बड़ा हितकारी बनने की प्रतियोगिता में प्रथम आओ दुर्घटना की एक-एक जानकारी बहुत करीने से लो ऐसे कि जैसे तुम देवता हो और उसमें कुछ जरूरी बदलाव कर सकते हो । इन सबके बीच एक जरूरी काम यह भी करना कि वह जो भीड़ से अलग खड़ा अपनी ही खामोशी में विलखता जा रहा है उसे परिदृश्य से बाहर ही धकेले रखना कहीं वह फूट पड़ा तो तुम्हारे आँसुओं का नकलीपन पहचान में आ जायेगा । उसके फूटने के पहले छद्म संवेदनाओं को भुना लो साथी कहीं दुर्घटनाओं का यह सुअवसर निकल न जाये । -- विहाग वैभव

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बड़ी दार्शनिक पंक्ति थी कि "मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है" , और सम्वेदनायें ही वो ज़रिया थीं जो मनुष्य को समाज से सकारात्मक रूप से जोड़े रखती थीं। तिस पर भारत जैसे "सांस्कृतिक भावना प्रधान" देश में संवेदना ही वह सबसे महत्त्वपूर्ण कड़ी थी जो मनुष्य और समाज को तरल धागे में बाँधती थी। येे वो मनुष्य था, जो किसी को दुखी देख अनायास ही करुणाकलित हो उठता तो किसी अपिरिचित को खुश देख बेवजह ही हँस पड़ता था। वो मनुष्य जो राह चलते भी किसी की छप्पर उठाने में अपनी पूरी ताकत झोंक देता था, तो किसी की मृत्यु होने पर पूरे गाँव के साथ कई दिनों तक अन्न की ओर देखता तक नहीं। जिसे आचार्य शुक्ल सहृदय-सामाजिक कहते हैं।

वैश्विक विकास के साथ मूल्यों में ह्रास होता चला गया। दुनिया बाजार हो गई और समाज, स्वार्थ का राजनैतिक अखाड़ा। आम आदमी और उसकी सम्वेदनायें महज़ इस्तेमाल होने की वस्तु हैं और उन्हें इस्तेमाल भी करता है आदमी। कभी सूट-बूट-टाई तो कभी खद्दर वाला आदमी। सम्वेदनाओं को देखकर लार टपकाता हुआ खूँखार जबड़ा....! चेहरे पर नकली सम्वेदना का लबादा ओढ़े वो हर भीड़ के पीछे खड़ा है। आम आदमी को संवेदनात्मक रूप से कमजोर करके उसकी सम्वेदनाओं को आग लगाकर अपने स्वार्थ की रोटी सेंकना उसका पेशा है। उसे आपके दुःख से मतलब नहीं, उसे तो इस बात से मतलब है की आपके आंसुओं की मार्केट वैल्यू क्या है...!

प्रियांशु मिश्रा 
उस लालची आँखों वाले जबड़े के कई चेहरे हैं.... वो मिडिया से है, कार्पोरेट सेक्टर से है, राजनीति से है, ग्लैमर जगत की चकाचौंध से है। वो चेहरा हमारे चारो ओर है। वो प्रतीक्षारत है दंगों का, सूखे का, बाढ़ का, किसानों की मौत का, किसी विद्यार्थी की आत्महत्या का, सीमा पर जवानों की शहादत का, चोरी-डकैती- बलात्कार का.... हर उस दुर्घटना का कि जिसमें वो चार आंसू बहाकर उसका इस्तेमाल कर सके। भावनाओं के शोषण और स्वार्थ में लिपटी छद्म सम्वेदनाओं के कटु यथार्थ को अभिव्यक्त करती यह कविता आज के समय की भावुक आवश्यकता है। विहाग को बधाई...!!!


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