नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Saturday, May 6, 2017

#1# अनएडवरटाइज्ड / समरेन्द्र उपाध्याय

आज का सूरज, बाजार है और विज्ञापन उसका प्रकाश. 
काम की-बेकाम की सारी चीजें जो हमारे पास पसरने को मजबूर है और जिसे हम भोगने को मजबूर हैं; उन सभी का बेरहम जरिया विज्ञापन की विधा है, जो जितनी जीवंत दिखाई पड़ती है उतनी ही बेदर्द भी है. 
बाजार विकल्प का भ्रम देता है, विज्ञापन उस भ्रम में वरीयता गढ़ता है और यों चल पड़ता है कारवां कारोबार का. 

इसी दुनिया के बाशिंदे हैं समरेन्द्र उपाध्याय
ये विज्ञापन की दुनिया जिसमें ना दिन १२ घंटे का होता है और ना ही रातों को ही मयस्सर होते हैं उसके घंटे. 

समरेन्द्र जी साझा कर रहे हैं इस दुनिया की मायावी परतों को सिलसिलेवार...!
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समरेन्द्र उपाध्याय
रिजेक्शन देखी है आपने? किस हद तक? क्या उस हद तक जिसके बाद "कोशिश करने वालों की हार नहीं होती" कविता भी धुंधली लगने लगती है ! पता लग जाता है आपको कि कोशिश करके भी घंटा कुछ नहीं उखड़ेगा। कोशिश की अम्मा खोज के लानी होगी. अगर हाँ, तो आप तैयार हैं एडवरटाइजिंग की दुनिया में अपनी किस्मत आजमाने के लिए. जहां रिजेक्शन, जुबान से निकले "मज़ा नहीं आया" वाक्य की गुलामी करता  है. और ये वाक्य आपकी काली हुई रातों का लिहाज़ शर्म छोड़कर बेवजह कभी भी फूट पड़ते हैं.

आप नए हैं तो फिर भी थोड़ा हाथ-पैर मारते हैं, वजह खोजने की कोशिश करते हैं. लेकिन अगर इस माहौल में कुछ सावन निकाल चुके हैं तो आप शिथिल पड़ जाते हैं और वजह खोजने की बजाय नया आईडिया खोजना ज़्यादा बेहतर समझते हैं. ये रेस चलती रहती है, दिन में भी चलती है और चलते-चलते अक्सर आधी रात तक चली जाती है. और कई बार जब आधी रात तक चली जाती है तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखती, जुझारूपन बरकरार रखते हुए अगले दिन पर ही जाकर रूकती है.

साभार गूगल इमेज

ये कभी-कभी तो दिशा में चलती है लेकिन अक्सर दिशाहीन. ज़्यादातर मौकों पर देखने को मिलता है कि जिस प्रेजेंटेशन के लिए आप पिछले 10  दिनों से दिशा तलाशने में अपनी रात की बत्ती लगा रहे थे...वो दिशा अचानक से प्रेजेंटेशन के एक दिन पहले आकर आपसे मिलती है और कान में गुदगुदी करते हुए कहती है "बड़े अजीब चूतिये हो, जब पता था कि मैं आज ही मिलूंगी तो पिछले 10 दिनों से कौन सा फसल बोने में लगे थे" ये सुनकर दिल सुलग जाता हैम्यूट मोड में सेट हो चुका ईगो लाउड मोड में जग जाता है. लेकिन जैसे ही ईएमआई उछलकर कॉलर पकड़ती है, इस उफान मारती क्रान्ति का आईडिया अगली सुबह परेड के लिए फिर तैयार हो जाता है. और अंत में कुछ इस रिजेक्शन को अपनी किस्मत मानकर इसके छांव तले बैठ जाते हैं, और कुछ इन्हीं रिजेक्शन्स का टीला बनाकर इसके ऊपर खड़े हो जाते हैं...दूर तक नज़र दौड़ाते हैं.


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