नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Saturday, April 1, 2017

#३# दिल की डायरी: मन्नत अरोड़ा


मेरा सामने आना उसके बहुत से सवालों से टकराना होता।वक़्त के इतनी आगे निकल आओ तो पुराने सवालों के जवाब किस काम के। उसके मिलने से पहले ही किसी और को हाँ बोल चुकी थी। अब करती भी क्या मैं,कोई हाथ धो कर तो एक तरफ बल्कि नहा-धोकर पीछे ही पड़ जाए कि शादी के लिए हाँ बोलनी पड़ी। तब मुझे लगा कि चलो ठीक है आखिर करनी तो है ही किसी से।आकर्षण जैसी कोई बात हर किसी की जिंदगी में होना जरूरी भी नहीं।

यूँ एक दम से उसका जिंदगी में चले आना वो भी तब जब आप कोई और निर्णय ले चुके हो।कुछ समझ नहीं पाते कि आप किस से झूठ बोल रहे हो और क्या छिपा रहे हो। और सबसे बड़ी प्रॉब्लम पेरेंट्स को समझाना जो कि पता नहीं कौन से ज़माने के थे कि कुछ समझना चाहते ही नहीं थे। माँ जिसकी रसोई और पूजा पाठ के आगे की कोई दुनिया ही नहीं और बस बेटी की शादी हो जाए इस से बड़ी कोई टेंशन नहीं।जब से मेरे बड़े ताया जी की बेटी की शादी हुई थी तब से यही आलाप रोज़ का कि उसने ग्रेजुएशन भी नहीं की और शादी कर ली।कितनी अच्छी है।करना क्या है ग्रेजुएशन पूरी करके तुझको।दिमाग खराब है।किसी लड़के को हाँ नहीं बोलती।पता नहीं क्या पसंद आएगा।मुझे समझ आ गया था कि सूली चड़ने का अब मेरा ही नंबर है।देखो कब तक रोक पाती हूँ।
पापा–जिनको आता देख के मोहल्ले के सारे बच्चे और ख़ासे बड़े भी जो क्रिकेट यां बैडमिंटन खेल रहे होते,सभी भाग जाते।होली में किसी बच्चे या बड़े का गलती से भी गुब्बारा यां रंग लग जाए तो बस फिर वो भी गया और उसके पेरेंट्स भी कि बच्चे अगर संभाले नहीं जाते तो पैदा क्यों किए और पता नहीं क्या-क्या।
पापा की सोच कि लड़कियों से किसी काम में राय लेनी सब से बड़ी बेवकूफ़ी।

मेरे को तो पढ़ने भी इसी शर्त पे भेजा गया था कि कहीं कोई गलती से भी गलत बात निकली तो पढ़ाई बंद।
बस जी सवाल खुद ही नहीं उठाये गए कभी।जवाब अब कहाँ से लाती।
पता नहीं क्यों उसके खुद के जवाब भी कुछ रूखे ही लगे मुझे।अपने बारे में बात करना ही नहीं चाहता था।समझ नहीं पा रही थी।है ही ऐसा यां मेरी तरह वक़्त का प्रभाव।

मेरी मैरिड लाइफ–understanding जैसे शब्द को बस मुझे ही निभाना था।
बाकी सब फ्री थे कोई कुछ भी करे बस मुझे एक अच्छे घर से आयी होने के कारण और माँ-बाप की इज़्ज़त के लिए सबका पागलपन ignore करना था।
यहाँ हर कोई अपने आप को फ़िल्मी हीरो-हीरोइन से कम नहीं समझता।सारे के सारे dramatic
दूसरों में कमी हो तो हो।हम तो जी सर्व-गुण संपन्न है।

मेरी ननदें ससुराल गेंदा फूल की तरह ज्यादातर मायके में पड़ी रहती।बच्चे भी।सारे एकता कपूर के धारावाहिकों के डेली सोप ही दिन भर चलते थे लाइव।बड़े जीजा जी कभी-कभार आते और छोटे कभी-कभार ही घर जाते थे।
मेरी सास खुद को ड्रामा देख-2 के तुलसी समझने लगी थी।जो सारी उम्र दुखी ही रही।
यहाँ बेटियां कुछ भी कर सकती थी और बहुएं कुछ भी नहीं।
मेरे दिन अब खाना बनाने और उनके बच्चे संभालने में बीतते थे।

ससुराल चाहे कैसा भी हो,जीवन साथी थोड़ा समझदार मिल जाए तो भी कुछ बुरा नहीं लगता।
वो भी वहमी और जो कोई माँ-बहिन पट्टी पढ़ा दे,बस उसी को मानकर लड़ने या मुंह सुजा के बैठने वाला मिल जाए तो कोई क्या करे।अपनी खुद की कोई सोच ही नहीं थी उसकी।
दूसरा आते ही सास को उम्मीद कि बेटा पैदा होगा।पहली बहु से पोती थी।अब तो पोता ही चाहिए।पंडितों से पूछ,दवाई बना के दी बेटा पैदा होने की। सबसे अजीब था मेरी छोटी ननद की सास का कहना कि कूड़ा (पंजाबी में लड़की को कुड़ी कहते हैं पर वो उसको कूड़ा बोलती थी)क्या करना है?
कूड़ा हो दूसरों के घर,हमें नहीं चाहिए कूड़ा।

अब क्या खाने में अच्छा लगता है क्या बुरा।इस से भी अनुमान लगाए जाने लगे कि बेटा होगा या बेटी।
सबको पक्का हो गया था कि बेटा ही होगा।

(क्रमशः)


मन्नत अरोड़ा 

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