नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Thursday, April 20, 2017

#24# साप्ताहिक चयन: 'स्मृति विसर्जन' / रुचि भल्ला

रुचि भल्ला
रोमियो और एंटी-रोमियो के इस दौर में प्रेम, प्यार, इश्क़ ये सब कहने मे कितने सहज लगते हैं ! कुल ढाई आखर ही तो है, पर ये ढाई आखर ही कभी  ढाई सौ गुलाब की गुलकंद लगते हैं तो कभी ढाई मन रेत का बोझ बन जाते  हैं एक बारगी प्रेम करना सहज है जब कि प्रेम मे बने रहना, प्रेम करते रहना, प्रेम को निबाहना तनिक कठिन | स्मृति विलोपन कि अवस्था मे स्मृतियों से प्रेम करना शायद और भी कठिन | न जाने क्या क्या लिखा गया और क्या कहा गया पर प्रेम तो धीमी आंच पर हौले हौले पकने वाली शै है

इस शै को ही हमसे रूबरू कराने वाली कविता आज नवोत्पल साप्ताहिक चयन में  चयनित  है |  आदरणीय कवयित्री  रुचि भल्ला जी  का रचनाकर्म संस्मरण, लघुकथा , कहानी आदि साहित्यिक लेखन मे दिखता है परंतु  कवितायें लिखना आप को विशेष प्रिय है | आपकी कविता पर सहज टीप की है, आदरणीया  अमिता पाण्डेय जी  ने,  आप संवेदनाओं से परिपूर्ण कुशल पाठिका हैं |


------------------------------------------------------------------





स्मृति विसर्जन


Google Image


अम्मा सुंदर हैं लोग कभी उन्हें सुचित्रा सेन कहते थे
अम्मा कड़क टीचर थीं स्कूल के बच्चे उनसे डरते थे
अम्मा अब रिटायर हैं और मुलायम हैं

अम्मा गर्मियों में आर्गेन्ज़ा बारिश में सिंथेटिक
सर्दियों में खादी सिल्क की साड़ियाँ पहनती थी
साड़ी पहन कर स्कूल पढ़ाने जाती थीं
वे सारे मौसम बीत गए हैं

साड़ियाँ अब लोहे के काले ट्रंक में बंद रहती हैं
ट्रंक डैड लाए थे उसे काले पेंट से रंग दिया था
लिख दिया था उस पर डैड ने अम्मा का नाम
सफेद पेंट से
ट्रंक तबसे अम्मा के आस-पास रहता है

स्पौंडलाइटिस आर्थराइटिस के दर्द से
अम्मा की कमर अब झुक गई हैं
कंधे ढलक गए हैं
पाँव की उंगलियां टेढ़ी हो गई हैं
अम्मा अब ढीला-ढाला सलवार -कुर्ता पहनती हैं
स्टूल पर बैठ कर अपनी साड़ियों को धूप दिखाती हैं
सहेज कर रखती है साड़ियाँ लोहे के काले ट्रंक में
जबकि जानती हैं वह नहीं पहनेंगी साड़ियाँ
पर प्यार करती हैं उन साड़ियों से

उन पर हाथ फिराते-फिराते पहुंच जाती हैं इलाहाबाद
घूमती हैं सिविललाइन्स चौक कोठापारचा की गलियाँ
जहाँ से डैड लाते थे अम्मा के लिए रंग-बिरंगी साड़ियाँ
अम्मा डैड के उन कदमों के निशान पर
पाँव धरते हुए चलती हैं
चढ़ जाती हैं फिर इलाहाबाद वाले घर की सीढ़ियाँ
घर जहाँ अम्मा रहती थीं डैड के साथ

लाहौर करतारपुर और शिमला को भुला कर
घर के आँगन से चढ़ती हैं छत की ओर पच्चीस सीढ़ियाँ
अम्मा छत पर जाती हैं
डैड का चेहरा खोजती हैं आसमान में
शायद बादलों के पार दिख जाए
उन्हें रंग-बिरंगे मौसम
जबकि जानती हैं बीते हुए मौसम ट्रंक में कैद हैं

अम्मा काले ट्रंक की हर हाल में हिफ़ाज़त करती हैं
सन् पचपन की यह काला मुँहझौंसा पेटी
अम्मा के पहले प्यार की आखिरी निशानी है


________________________________________

अमिता पाण्डेय
विशुद्ध मानवीय धरातल पर प्रेम नितांत व्यक्तिगत नहीं रह जाता । प्रेम की निजी अनुभूतियां जब शब्दों का आवरण ओढ़कर हमारे सामने आती हैं तब वह जिस तरह से पाठक के साथ रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करती हैं वह प्रक्रिया उसे अनेकों हृदयों के अनुभवों से जोड़कर प्रेम के एक विराट कैनवास का निर्माण करती है । रूचि भल्ला की कविता 'स्मृति विसर्जन' कुछ ऐसा ही हमारे साथ करती है । यह कविता नास्टेल्जिया का रूप धरकर हमारे सामने प्रस्तुत होती है और एक 'मुंहझौंसे' सत्य के रूप में अंततः हमारे सम्मुख खड़े होकर हम पर लगातार मुस्कुराती रहती है । 

कविता की शुरुआत एक स्त्री के सुखद इतिहास की कहानी है जहां हर तरफ बागों में बहार है । कुछ समय के लिए अगर विमर्श टाइप की चीज को किनारे रख दिया जाए और नितांत भारतीय गृहस्थ  प्रेम को केंद्र में रखा जाए तो हम पाएंगे कि एक भारतीय स्त्री की ठसक का स्रोत उसका पति होता है । यहां एक आदर्श स्थिति है और वह यह कि वह पति भी उस स्त्री से अनन्य प्रेम करता है । इसका प्रमाण वह साड़ियां हैं जो की उसने अपनी उस पत्नी के लिए खरीदी हैं । अब हम विमर्श को वापस ले आते हैं तो हम पाएंगे कि हमारे लाख इंकार के बावजूद यह होता है की स्त्री का संस्कार ही कुछ तरह होता आता है कि वह अन्ततः अपने आपको इस तरह मिटा देती है कि उसका अस्तित्व कोई मायने नहीं रखता । वह एक काले बक्से के इर्द गिर्द ही घूमता रहता है ।यहाँ बक्से का काला होना अनायास नहीं है । एकबारगी भले ही यह लगे की यह स्मृतियों का संग्रह है लेकिन यह एक ऐसा गह्वर है जिसमें वह अपनी स्मृतियों का, अपने प्रेम के साक्ष्यों का विसर्जन करती है ताकि वह अपने को और मिटा सके और इसकी नींव पर अपने प्रेम की मीनार को खड़ा रख सके । दरअसल यह विसर्जन विशुद्ध प्रेम और तर्क की भूमि और खड़े विमर्श के बीच एक बड़ी महीन रेखा है जिसका ध्यान रखा जाना अत्यंत आवश्यक है।

मैं कवयित्री को इस मर्मस्पर्शी परंतु नितांत निश्छल प्रेम से परिपूर्ण रचना के लिए साधुवाद देती हूँ और शुभकामनाएँ भी |
                                                                                  (अमिता पाण्डेय)

0 comments:

Post a Comment

आपकी विशिष्ट टिप्पणी.....