नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Saturday, March 25, 2017

#1# नोटबंदी में आशिक़ी : हिमाद्री बरुआ

हिमाद्री बरुआ 
आदरणीया हिमाद्री बरुआ बेहद सक्रिय लेखिका हैं. गहरे अकादमिक ट्रेनिंग से आने के बावजूद भाषा में इनकी रवानगी देखते ही बनती है. लगभग सभी लोकप्रिय विधाओं में आपकी लेखनी के रंग की खुशबू बिखरी हुई है. एक सघन व्यक्तित्व जिसमे एक समाज सेविका भी है, उन्मुक्त लेखिका भी है, निर्देशिका भी है, स्त्री अधिकारों की पैरोकार भी है और भी जाने कितना कुछ समाया है इस व्यक्तित्व में. नोटबंदी के अब भी कितने ही मायनों पर बातें होनी हैं...पर बहुधा जो कई नहीं कह पाते, वह व्यंग विधा खिलखिलाते हुए कह जाती है. आइये आस्वादन लें इस विषय पर लेखिका के व्यंगमाला का जिसे नवोत्पल तक पहुँचाया है अपने गौरव कबीर जी ने.                                                                                                             
                                                                                                                              (डॉ. श्रीश)

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 भाग – 1



नोट बंदी में आशिकी 

नोटबंदी ने उन लौंडो को भी दिन भर लाइन में खड़ा कर दिया है जो सिर्फ रात को जिम में बॉडी पंप करके सीधा नाईट क्लब जाते थे. मुझे पता नहीं था मेरी कॉलोनी में इतने गबरू भी हैं जो अब नोटबंदी के स्प्रे से कोने कोने में छुपे कॉकरोचों की तरह बाहर  निकल रहे हैं. परसो स्टेट बैंक की लाइन में लगी थी, दो आदमी छोड़ कर एक 6 फुट का दढ़ियल खड़ा था। कभी देखा नहीं था उसको आते जाते, या दूध की डेरी पर, केमिस्ट में, किराने की दूकान पर. दिल में कबूतर से फड़फड़ा गए उसको देख कर और दूसरी बार पलट कर आँखों में आँखे डाल दी मैंने. लंबा तो था ही, सीधा एंगल बन रहा था नैनमटक्का करने के लिए.

अब दो विकल्प थे मेरे पास, या तो उसको अपने आगे बुला लूँ या अपने पीछे खड़ी दोनों अम्माओं को आगे बढ़ा कर खुद उसके आगे लग जाऊँ. उसको आगे करती तो जनता मुझपर ऐसा पथराव करती मानो गाँव में किसी औरत को चुड़ैल घोषित कर दिया हो जमींदार के छोरो ने. और दिल में बड़े सारे सवाल थे भाई साहब!!
इतना "हॉट" लड़का है, सिंगल तो कतई न होगा. उम्र में छोटा हुआ तो माँ वाली फीलिंग तुरंत से पहले आ जायेगी मेरे अंदर.

बात शुरू कैसे करूँ.. आस पास का है क्या.. दिखा क्यों नहीं अब तक..
कहाँ इन घसियारों की फ़ौज में एक गन्ना उग गया..
और मैं डेस्परेट नहीं लगना चाहती थी.. पैसा जरूरी है..
इसी कश्मकश में मैं एक बार फिर पीछे मुड़ कर उसको देखने लगी.. 'कुछ तो बोल'
फिर मैंने दिल मसोस कर सोचा चलो जाने दो.. मैरीड भी हो सकता है.. बहुत बार कटा है ये "बाद में शादीशुदा निकला" केस में मेरा. बाकी जनता कुछ गालियाँ दे रही थी, कुछ बुद्धिजीवी बनने की कोशिश कर रही थी, कुछ मोबाइल पे केंडी क्रश खेल रही थी और मेरा दिल यहाँ छोले भटूरे हुआ जा रहा था.

कोई "पंच लाइन" भी नहीं सूझ रही थी, सच कह रही हूँ दिमाग की फैक्ट्री में one liners  बनने बन्द से हो गए, कोई आइडिया नहीं आ रहा की कैसे एक बार पीछे मुड़ जाऊँ और बात शुरू हो जाए. हाय, वो सिल्की सिल्की से बालों में उसका हाथ फेरना.. फिर मोबाइल निकाल कर टाइम चेक करना.. फिर टीशर्ट खेंच कर सीधा करना.. चप्पल में भी कितना क्यूट लग रहा था. हिम्मत कर के मैं फिर पीछे मुड़ी और उसको देखा.. कम्बख़त मोबाइल में लगा हुआ था.

करीब 40 मिनट मेरे दिल के जुझारू मुर्गे यूँ ही भिड़ते रहे और मैं उस ख़यालों में चिकन निहारी बनाती रही..
जब रहा नहीं गया, तो पीछे वाली अम्मा को बोला, "अम्मा आपके आगे खड़ी हूँ, एक मिनट में आई" और फ़ोन करने का बहाना करके एक चक्कर काट आई. वापस आते वक्त उसके साथ खड़ी हुई.. और एक स्माइल दे दी..
फिर जा के अपनी जगह खड़ी हो गई. दबंग तो हम बचपन से हैं और अम्मा दोनों बहुओ की बुराई में लगी हैं.. बस फिर पीछे मुड़ कर तुक्के में इतना पूछ लिया "You live somewhere near .... or something? I guess I have seen you somewhere.."

एक मुस्कराहट के साथ उसने भारी आवाज़ में अपना ब्लॉक नंबर बताया.. "Yes, just nearby, next to medical store" और बस.. अब तो मैं शाम तक खड़ी हो सकती थी.
फिर मैंने और कुछ नहीं पूछा.. दो दिन हो गए, अभी तक दोबारा दिखा नहीं है.. अब की मिला तो बस.

(क्रमशः)

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