नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Thursday, January 5, 2017

#9# साप्ताहिक चयन: भागी हुई लड़कियां / 'मृगतृष्णा'

एक शब्द में कहें तो "मृगतृष्णा" एक यायावर हैं जो दुनिया को अलग निगाह से देखती, लिखती और महसूस करती हैं और इसी अनुभव से आप बेहद सधी हुई भाषा और शिल्प के साथ शब्दों की माला को कविता के रूप में पिरोती हैं । यद्यपि यह निश्चय से नहीं कहा जा सकता कि "मृगतृष्णा" आप का मूलनाम है या पेननेम । पर कहतें है न, कि नाम में क्या रखा है और जब कवितायेँ इतनी व्यापक आयाम लिए हों तो सच में आखिर नाम में क्या रखा है । सोशल मीडिया पर दिए परिचय के अनुसार मृगतृष्णा लखनऊ की मूलनिवासी हैं तथा संप्रति हिमांचल केंद्रीय विश्विद्यालय में शोधरत हैं । आप की कविता "भागी हुई लडकियाँ" पर अपनी विशेष टिप्पणी देने के लिए अपनी रज़ामंदी दी है हिंदी साहित्य के जानकार और कवि डॉ अभिषेक निश्छल जी ने । आइये इस अद्भुत काव्यदृश्य का रसपान करें । -डॉ गौरव कबीर

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मृगतृष्णा

भागी हुई लड़कियां 

भागी हुई लड़कियों के पांव
पीछे की ओर नहीं होते
उनकी बातें तैरती है हवाओं में
पीछे पीछे
ठीक उसी तरह जैसे
बारिश में छुपकर नहायी
किसी लड़की की देह महकती है पूरे क़स्बे में
वे सिर्फ़ मुस्कुराती नहीं
बल्कि बत्तीस दातों की ऐसी निर्लज्ज हंसी हंसती हैं
कि खाप के कान फट पड़ते है
उड़ाती है दुपट्टा सरे राह यूं
कि इज़्ज़त की नाक कट जाये
भागी हुई लड़कियों इतनी बेफिक्र चलती हैं कि
चाहनाओं की नींद खुल जाती है
उनकी सवालियां आखों के
जवाब ढूंढें नहीं मिलते
उनके पांव पीछे की ओर नहीं होते
भागी हुई लड़कियों का अपना वर्तमान नहीं होता


कि भागी हुई लड़कियां बेशक़ 'भूत' होती हैं



पेंटिंग साभार: नेशनल राइट टू लाइफ न्यूज़ वेब पोर्टल 


2.
भागी हुई लड़कियां अपने पीछे तस्वीरें नहीं छोड़तीं
वे छोड़ आती हैं अपने पहलेपन की उम्र
दीवार की एक बंद खिड़की
रात की दोपहर के बाद की सुगबुगाहटें
पड़ोसन की चालीसवीं कमर पर
स्याह छल्ले
चुप्पी का सन्नाटा
कैलेण्डर की पीठ पर
ख़ास लम्हों के लाल गोले
वे छोड़ आती हैं विदा की एक घड़ी
और सब्र का एक टूटा हुआ घड़ा
भागी हुई लड़कियां साथ ले आती है अपना सोलहवां
और इज़्ज़त की नाक
कि भागी हुई लड़कियां कोई क़िस्सा-कहानी नहीं होती

3.
भागी हुई लड़कियों के सपने में
घर की छतें आती है
मचान पर बैठी बर्बादी के तोते उड़ाती
सिरमतिया आती है
छोटी बहन को समझाती है कि ज़माना ख़राब है
पर सबसे ज़्यादा ख़राब होती हैं
कई बार घर की दीवारें भी
अपना ख़याल और पिता का रखना ध्यान
तुलसी को सूख जाने देना
कैक्टस को देते रहना समय पर पानी-खाद
उन्हें माँ अक्सर याद आती है
और पिता से करती हैं वे सबसे ज़्यादा प्रेम
भागी हुई लड़कियां 'बदचलन' का इन्द्रधनुष पीठ पर लादे भटकती हैं
कि भागी हुई लड़कियों के जनमदाग नहीं होते

4.
भागी हुई लड़कियों की आँखें अँधेरे में भय नहीं देखती
सूरज की लपटों को लपेटती हैं वे कमर में
क़दम सधी हुई चाल नहीं चलते
ताज़ी सनी मीठी सी देह लिए
उसे गूंथती हैं तीनों पहर के सांचे में
भागी हुई लड़कियां छत्तीस बत्तीस के फिगर में नहीं होतीं
कि भागी हुई लड़कियों का अपना व्यक्तित्व होता है

5.
भागी हुई लड़कियों के जीभ नहीं होती
उन्हें रसोई में रास आने लगता है
चीटियों की जगह नमक
चखने लगती हैं हर मौसम का स्वाद
पतझड़ में चढ़ता है उन पर हरापन
और सावन में बचाये रखती हैं अपना पत्तापना
प्रेम के महीने में ढूंढ लाती है एकांत
पुरखों के महीने में कव्वों को खिलाती हैं
मिली हुई नसीहतें
समंदर जीत लेने की धुन लिए
वे नदी कहलाना अधिक पसंद करती हैं
सु 'शील' जैसा कुछ ढूंढे नहीं मिलता
गो कि उनमें ज़िद होती है
छुटपन में जैसे सबसे पहले बोली थी पिता
उसी नाम के सिगरेट के छल्ले बनाना
सीखती है सबसे पहले
प्रेम के जवाब में, भागी हुई लड़कियों के पास होती है अपनी किताब
कि हर बार भागी हुई लड़कियों के प्रेमी नहीं होते
                                                                                 -मृगतृष्णा

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डॉ० अभिषेक शुक्ल 'निश्छल'
'मृगतृष्णा' की कविता 'भागी हुई लड़कियां' समाज के दो वर्गों की मानसिकता को उदघाटित करती है। पहला वर्ग जो तथाकथित संस्कार, मर्यादानियम व बन्धन का आवरण डाले सबकुछ करने वाला समाज और दूसरे वर्ग के रूप में समाज के इन संरचनात्मक ढाँचे को गिराकर 'बेफ़िक्र' अपनी धुन में चलने वाले लोग। कविता के प्रारंभ में ही दृष्टिगोचर होता है कि भागी हुई लड़कियाँ तो वापस नहीं आतीं परन्तु समाज अपनी चर्चा में हमेशा उन्हें स्थान दिया रहता है। यही समाज जो उन लड़कियों की निंदा करता है कहीं न कहीं उनके सौंदर्य के वशीभूत होकर उनके अल्हड़पन की महक से आकर्षित होता है 

"बारिश में छुपकर नहायी
                                                किसी लड़की की देह महकती है पूरे क़स्बे में"

कविता में भागी हुई लड़कियाँ रूढ़िवादी 'खाप' की वर्जनाओं को तोड़ने का प्रयास करती हैं; अपनी निशानी के रूप में पहलेपन की उम्रबन्द खिड़की,सुगबुगाहटकमर पर स्याह छल्लेसन्नाटाकलण्डर पर लाल गोलेविदा की घड़ीसब्र का टूटा घड़ा छोड़ जाती हैं। इन प्रतीकों से कवि ने समाज की परिस्थितियों में स्त्री के फिट-अनफिट होने को उजागर किया है।

'मृगतृष्णा' ने अपने उपनाम  के कनोटेशंस एवं ईश्वर अस्तित्व पर सहज प्रश्नों की अभिलाषा से उपजे प्रभाव में ठीक ही धर्मिकता एवं परम्पराओं का प्रतीक पौधा 'तुलसी' की अपेक्षा 'कैक्टस' के पोषण की तरफदारी करते हैं जो रेगिस्तान में उगता है तथा हमें प्रबल जिजीविषा का पाठ पढ़ाता है। निस्संदेह 'कैक्टस' का यही क्षेत्र 'मृगतृष्णा' की पीड़ाजन्य खुरदुरा जीवन-संघर्ष है जिसमें कवि यथार्थ के जीवनरस की खोजकर अपनी तृष्णा मिटाना चाहता है। इतना ही नहीं कवि भागी हुई लड़कियों की पीठ पर 'बदचलन' का इंद्रधनुष भी देखता है, जिस इंद्रधनुष के रंगो से समाज अपने सतरंगी सपनों का मिलान करता है। 

           भागी हुई लड़कियाँ जैसे समझती हैं  समाज के इस सुनहरे दोमुंहेपन को छुटपन से ही। समय आगे बढ़ता है तो वें अपनी भूमिका से इसका जवाब भी देती लगती हैं, यथा-'रास आने लगता है चींटियों की जगह नमक','पतझड़ में हरापन' या 'सावन में पत्तापन' की स्थिति,ठीक कविता भी अपने गन्तव्य को पूर्ण करती हुई नदी की भाँति साहित्य के सागर में अपनी निरन्तरता को प्रतिष्ठित करते हुए जाकर मिल जाती है।अंत में कविता उन लड़कियों के संघर्ष की किताब रखते हुए,समाज के सामने एक प्रश्न उपस्थित करती है-
                    "हर बार भागी हुई लड़कियों के प्रेमी नहीं होते।" 

कविता का मूल निहितार्थ रचनाकार ही बता सकता है मेरी टिप्पणी को आभासी प्रतिबिम्ब मात्र समझा जाय।
                                               [ डॉ० अभिषेक शुक्ल 'निश्छल' ]

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