नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Thursday, December 29, 2016

#8# साप्ताहिक चयन: प्रार्थनाएं/ *अहर्निश सागर'

अहर्निश सागर
नवोत्पल यूँ तो साहित्य की हर विधा का मंच है पर यकीनन पहला ईश्क इसे कविताओं से ही है। ऐसे में कोई कवि जब कविता पर कुछ कहता है तो रूककर छककर तत्व-अर्थ छूने को जी चाहता है।

"कविताएं वे उदास प्रार्थनाएं हैं
जिन्हें मैं ईश्वर से छिपाता हूँ
लेकिन मैं उन्हें छिपा नहीं पाऊंगा
अगर ईश्वर मेरे घर में
मेरी प्रेमिका या पुत्री बनकर आया।"
 (अहर्निश सागर)

सिरोही, राजस्थान के अहर्निश सागर एक सुनहले दमकते युवा कवि हैं जिनके पास जीवनराग को महसूसने की इक अपनी ही लय है। दर्शन और शब्दों के उम्दा चितेरे कवि।



 "मैं आस्तिक हूँ
घोर आस्तिक
एक अंध श्रदालु
क्यूंकी
मैनें कुछ ग़लतियाँ की हैं
मैं कुछ और ग़लतियाँ करना चाहता हूँ
मैं कुछ लोगों से नफ़रत करना चाहता हूँ
और फिर
अपने किये की क्षमा चाहता हूँ।"

 (अहर्निश सागर)


इसप्रकार अहर्निश की कवितायेँ एक लय में चलती हैं--कवि को ईश्वर की जरुरत रहेगी मानव बने रहने के लिए और जिजीविषा की कवितायेँ उसे उदास प्रार्थनाएं लगती हैं ! ये प्रार्थनाएं विरोधाभासी हैं, ठीक प्रकृति-लय की माफिक। अहर्निश जी की 'प्रार्थनाएंइस बार की नवोत्पल साप्ताहिक चयन की चयनित प्रविष्टि है।

आदरणीया डॉ. दीप्ति जौहरी जी  ने इस बार समीक्षक की महती जिम्मेदारी सम्हाली है। बारीक समझ और सफल अध्यापन के साथ ही साथ जेंडर इश्यूज पर शोधपरक लेखन आपकी साहित्यिक संवेदनशीलता तो बढाता ही है, इसे एक स्तरीय महत्ता भी प्रदान करता है। 

आइये इस मणिकांचन संयोग के विविध विन्यास निरखें..!!! (डॉ. श्रीश)


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रविवार की सुबह एक बच्चा प्रवेश करता हैं चर्च में
प्रार्थना के बीच टोकता हैं पादरी को-
"तू भटक गया हैं पादरी, चल मेरे साथ चल
------मैं तेरा घर जानता हूँ

पादरी, प्रार्थना के उपरांत
बच्चे को उसके घर छोड़ आता हैं

किसान जमीन पर घुटने टेक
प्रार्थना करता हैं बारिश के देवता से
सुदूर आकाश में उड़ते गिद्ध
प्रार्थना करते हैं अनावृष्टि की
विरोधी प्रार्थनाएं टकराती हैं आकाश में
असमंजस में पड़ा बारिश का देवता
निर्णय के लिए एक सिक्का उछालता हैं

पहाड़ की नोक पर
उग आये सूरज को देखकर
बच्चा प्रार्थना करता हैं--
काश, ये सूरज गेंद की तरह टप्पे खाता
उसके पैरों में आकर गिर जाएँ

बच्चों की प्रार्थनाओं से घबराया हुआ ईश्वर
अपने नवजात पुत्र का सिर काट देता हैं

हम अपनी प्रार्थनाओं में
लम्बी उम्र की कामना करते हैं
कामना करते हैं सौष्ठव शरीर
और अच्छे स्वास्थ्य की

लेकिन उस युद्ध ग्रस्त देश में
जब प्रार्थना के लिए हाथ उठते हैं
वे कामना करते हैं-
हमारे सीने को इतना चौड़ा करना
की कारतूस उसे भेद हमारे बच्चों तक ना पहुंचे
हमें घर की सीढ़ियों से उतरते हुए गिरा देना
ताकि औरतों को लाशों के ढेर में हमें खोजना ना पड़ें

हे ईश्वर
जब युद्ध प्रार्थनाओं को भी विकृत कर दें
तू योद्धाओं से उनकी वीरता छीन लेना

बुद्ध ने अपने अंतिम व्याख्यान में
प्रार्थनाओं को निषेध कर दिया

कही कोई ईश्वर नहीं,
तुम्हारी प्रार्थनाएँ मनाकाश में
विचरती हैं निशाचरों की तरह
और तुम्हारा ही भक्षण करती हैं

भिक्षुक, प्रार्थनाओं से मुक्ति के लिए
प्रार्थना करते हैं
और भविष्य के लिए मठों में
काठ के छल्ले लगाते हैं  
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 अहर्निश सागर

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डॉ. दीप्ति जौहरी

प्रार्थना, मनुष्य का ईश्वर तक पहुँचने का पुल है। मनुष्य अपने जीवन की विभिन्न अनिश्चिताओंं से आक्रांत हो ईश्वर की गुहार लगा उठता है इसमें किसी की पुकार ,किसी और के पुकार के विरुद्ध भी हो सकती है ।परंतु वो परम सत्ता तो सब के लिए है उसे सब की सुननी है ,निरपेक्ष भी रहना है परंतु ये निरपेक्षता भी किसी के तो सापेक्ष ही होगी । मनुष्य की क्षमताओं की आखिरी सम्भावना है ईश्वर से पुकार ....समस्त वायुमंडल आच्छादित है प्रार्थनाओं से , आकाश गुंजित है प्रार्थनाबिद्ध मन्त्रों से ,कंपित है अस्फुट मानवीय स्वरों  से , और  ये  सभी मानवीय कामनाएं यदि अलग अलग की जाये तो स्वयं ईश्वर भी असमंजस में पड जायेगा कि वो क्या करे।   .....  एक ही मार्ग बचता है जहाँ ये सभी स्वर आबद्ध हो ,एक सांझी धुन का अविष्कार करे जो मनुष्य के चित्त को बहा ले जाये ऐसे दुनिर्वार डगर पर जहाँ आस्था प्रमुख हो और निमित्त अंतर्ध्यान ।

कवि ,कविता के माध्यम से ईश्वर के मानववादी होने की वकालत करते करते भी अंत तक आते आते उसके अस्तित्व पर संदेह करने लगता है जहाँ वह बौद्ध दर्शन का सहारा लेते हुए ,स्वयं ही इन प्रार्थनाओं के औचित्य,अर्थवत्ता पर शंका करने लगता है।

कविता के प्राम्भ से ही ईश्वरीय सत्ता और मानवता का घालमेल  बेहद सुंदर रूपको के माध्यम से धीरे धीरे परवान चढ़ता है , मध्य में  आकर ज्यों  ही  ईश्वर की सामर्थ्यता  कीें स्थापना की ऒर बढ़ता है  (परस्पर विरोधी प्रार्थनाओं की पुकार सुनने के रूप में) तभी परमसत्ता पुनः स्वयं को संशयात्मक  स्थिति में पाती है (निर्णय के लिए सिक्का उछालने) । अंत तक आते आते परम सत्ता को पूरी तरह चुनौती मिल जाती है जब बुद्ध का रूपक समस्त प्रस्थापनाओं को ख़ारिज करते हुये प्रार्थनाओं की व्यर्थता को इंगित करता  है तथा  परमसत्ता के लिए प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धान्त को समर्थन देते है और बुद्ध रीति-रिवाजों, प्रार्थना और पूजा के आडंबरों के सख्त खिलाफ़ थे.

और अब कविता की शुरू से बात करे तो .... प्रार्थना के लिए नियत दिवस पर  एक बच्चा जो मानवता का  निर्दोष आद्य प्रारूप है वह बिचौलिये ( पादरी )  से परमसत्ता और मानव के बीच से हटने को कहता है । परन्तु बिचौलिया उसे फिर उसी मुकाम पर ले आने में सफल होता है जहां उसकी मध्यस्थता कायम है ।

कृषक और गिद्ध की प्रार्थनाएं विरोधाभासी है । जगत चूँकि विरोधाभासों  के द्वन्द और उनके संश्लेषण की सतत प्रक्रिया से ही निर्मित होता है जिससे प्रार्थनाओं के अस्तित्व और सार दोनो  पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है ।

कवि पुनः कहता है कि कुछ प्रार्थनाएं इतनी अबोध है कि यदि उनकी पहुंच का कोई मार्ग उस  द्वंद तक होता तो सम्भव था कि सृष्टि के चलते रहने तथा नव उत्पत्ति की संभावना ही खत्म हो जाती ।इसी सन्दर्भ में संभवतः नवजात  पुत्र का  सिर काट लेना प्रयुक्त किया गया है। 


मानवता की साधारण परिणामपरक प्रार्थनाओं को तो उसकी अनिश्चिता के भय से निगमित किया जा सकता है पर कवि की चिंता है कि मानवता का एक हिस्सा ऐसा भी है जिसकी प्रार्थनाएं  गर  मकबूल हो जाये तो हम मानवता के विकृत आखिरी सिरे पर  खड़े होंगे।


चिंतित कवि इन प्रार्थनाओं के आकाश में टँगे   विकृतियों के इंद्रधनुष  पर धूप खिलाने के  वास्ते  बुद्ध की  तरफ देखता है । बुद्ध जो मानवता को  अनीश्वरवाद का   ,अनित्यवाद का , अनात्मवाद का और क्षणभंगुरता के साथ प्रतीत्यसमुत्पाद का संदेश दे रहे है ,उनके अनुगामी ही  प्रार्थनाओं से मुक्त मानवता की बात कर सकते है ।


ये संसार मानस संसार है । इस संसार में निहित मानवता का अपने तथाकथित हितार्थ में ताना गया प्रार्थनाओं का मानस आकाश  कवि कहता है कि इतना प्रदूषित हो गया है कि मानवता के स्वास्थ्य को  खतरा है । इसलिए इस आकाश की स्वच्छता  के लिए जरूरी है कि  इनसे मुक्ति की प्रार्थना ही सबसे बड़ा अभीष्ट  होना चाहिए ... इसीलिए शायद काठ के छल्ले लगाये जातेहै ।


कवि की प्रार्थना कविता पढ़ते समय मन में बार -बार सर्वेश्वरदयाल की मानववादी कविता याद आती है जहाँ ईश्वर और मनुष्य की सत्ता एकाकार हो जाती है और उनकी पंक्तिया जहाँ वो कह उठते है  .... " इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा कुछ भी नही है न ईश्वर न ज्ञान न ..."
 यहां भी कवि ईश्वर और मानव के सम्बन्ध को रेखांकित करते हुए कविता को ईश्वर के प्रति मोहभंग तक विस्तृत कर ले जाता है जहाँ वह निराला की पंक्तियों से किंचित निकट आती हुयी जान पड़ती हैं  कि  " जय तुम्हारी देख भी ली रूप की गुण की ,सुरीली " ।  इस स्तर पर आ  के  कविता  पुनः सर्वेश्वर जी के ईश्वर के प्रति नकारात्मक रुख जिसमे वो कहते है ... " शक्ति नही मांगूंगा" या " यही प्रार्थना है प्रभु तुमसे जब हारा हूँ तब न आइये"   ... तक तो नही पहुचता न ही चुनौती देता है वरन बुद्ध के चिंतन के प्रसंग को छेड़ के एक ..... या कहे अंतर्मन के तार को छेड़ देते है । जहाँ पाठक अपनी अपनी व्याख्या के लिए स्वतंत्र है।


यहाँ यह महत्वपूर्ण है कि उपर्युक्त सभी कविताओं में भिन्न कवि अपने काव्य में प्रार्थनाओं के अस्तित्व को स्वीकारते हुए उसके स्वरूप में अपनी वैचारिक  भिन्नता काव्य में प्रकट करते है परंतु अहर्निश इस कविता में प्रार्थना के अस्तित्व और सार दोनों पर प्रश्न चिन्ह लगाते हुए  प्रार्थना मुक्त संसार की कामना का काव्य रचते है । यही बात इस कविता को इस मोड (mode)की अन्य कविताओं से विशिष्टता प्रदान करता है ।


अंततः कहना ही होगा इतने गूढ़तम दार्शनिक अर्थों को स्वयं में समेेट काव्य में पिरोते हुए ,कवि अपनी बात को कोमलता से धीरे से कह जाता है ,जो अत्यंत ही दुर्लभ प्रतिभा और प्रखरता का परिचायक है ।

*डॉ. दीप्ति जौहरी 


1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (30-12-2016) को "महफ़ूज़ ज़िंदगी रखना" (चर्चा अंक-2572) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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