नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Sunday, June 8, 2014

अद्भुत कविताओं का संकलन 'शब्द नदी है' की समीक्षा

अद्भुत कविताओं का संकलन 'शब्द नदी है' की समीक्षा 


वसुंधरा पाण्डेय
पुस्तक: शब्द नदी है





जन सन्देश टाइम्स 


पढ़ लिए समस्त पृष्ठ। फिर परखा मैंने, कवि की एक कविता की पंक्ति से स्वयं को....!

“पतझर में भी
खिला करते हैं कई फूल
क्यों इंतज़ार करे है बहार का
मत ढूँढा कर शायरी में वजन
पूछना है तो पता पूछ प्यार का”

मैंने सोचा कि मै ही क्या खरा उतरा हूँ इस कसौटी पर।

इन्हें पढ़ते हुए क्या तलाश कर रहा था मै....शब्द, शिल्प, विन्यास, भाव, अलंकार, व्याकरण या  प्यार........!
चूंकि ये पंक्ति शुरू में ही आ जाती है तो बच जाता हूँ, कोई बचकानी हरकत नहीं करता मै और फिर बस प्यार, प्यार और बस प्यार ही निरखता जाता हूँ मै समस्त रचनाओं में।

जी हाँ, समस्त कवितायें, उनके समस्त अंग-प्रत्यंग प्रियतम के प्यार में रची-सनी हैं। कभी प्रियतम की याद में पिघल रहीं हैं, कभी उनसे मिलते हुये उनकी तारीफ़ से घुल रही हैं और ज़्यादातर उनमें विलीन हो जा रही हैं। ऐसा कोई पृष्ठ नहीं जो सहज प्रेम की चाशनी में फूल ना गया हो। इन समस्त कविताओं में प्रेम, सृजित हुआ है, प्रेम ही युवा हो, दो ‘एक हो चुके’ को रिझा रहा है, प्रेम ही विकसित हो सब ओर छा रहा है और प्रेम ही जीवन धन्य करते हुए सबमें सबका हो जा रहा है। प्रेम प्रकीर्णन में कविताओं की अन्य सब विशेषताएँ सहज ही आ गई हैं जो इन्हें सब प्रकार से ग्राह्य बनाती हैं...और यही तो, इतना ही तो कवि चाहता है। एक सर्वमहत्वपूर्ण उपलब्धि कवि की यही है कि प्रेम संदेश को कभी भी उसने मद्धिम नहीं पड़ने दिया है चाहे कविता जैसी भी निखर गई हो।

कविता तो वैसे भी एहसासों का मुकम्मल दस्तावेज़ होती है...और फिर इस संकलन की समस्त कविताओं को पढ़ते-समझते महसूस होता है जैसे कोई सुकुमार पहले पहल कैसे प्रेम को देखता है, फिर उसे समझता है, चुनता है, अपनाता है, अपेक्षा करता है, यथार्थ टटोलता है, उससे टकराता है, प्रश्न भी करता है, स्वयं ही उत्तर भी खोज लेता है, त्याग करता है, फिर उसमें समा जाता है......! सम्पूर्ण संकलन उस सुकुमार की प्रेम यात्रा है जो धीरे-धीरे प्रेम पथ पर चलते-चलते सहज ही स्वयं प्रेम की पराकाष्ठा बन समक्ष आता है।
कवि प्रारम्भ में ही पाठक को ताकीद कर देता है कि गलती मत कर बैठना प्रेम यात्रा को समझने में...:

“कुछ तो
रूह से भी महसूस किया करो
इतनी भी
अल्फाज़ की मुहताजी क्या है...!”

कवि जानता है लोग जल्दबाज़ी में है, कुछ का कुछ  मान बैठते हैं, उपर्युक्त पंक्तियों में मानो कह रहा हो कि- तुम सब कुछ शब्दों की बैसाखी से सीखने के मोहताज हो गए हो....तभी तो जब मैंने सोचा कि तुम चाँद स्पर्श कर रहे होगे तो तुम मेरी उंगली पर ही झूले जा रहे थे.....!

कविताओं का प्रकटीकरण, उद्देश्य के आधार पर छः वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।
पहली तरह की कविताओं में कवि ने प्रेम की चाह व्यक्त की है।

“कहाँ लोहा
कहाँ तेल
कहाँ दिल की छुई-मुई
हारमोनियम धडकनें

फिर भी
दिल तो दिल है
आज नहीं कल
इस जन्म नहीं,
अगले में
पा ही लेगा मंजिलें...”

कवि की हारमोनियम धड़कनें थकने वाली नहीं है.....!!!
कैसा प्रेम अपेक्षित है, कवि को स्पष्ट है...देखें:

“इश्क और कविता में
उम्र की तरह
रूप-रंग
एक गलतफहमी है...”

गहरा प्रेम, कहीं से भी छिछला प्रेम नहीं....प्रेम के आगे उपसर्ग भी छिछला नहीं जँचता...! जरा ठहरो, तुरत ही ना तौलने लगो, इश्क़ औ कविता को गहरे से पकड़ो....ऊपर तो दुनियावी परत है..! कई कवितायें हैं जिनमें बड़ी ही बखूबी प्रेम के मायने और अनंत अभिलाषा सूक्ष्मतम रूप से व्यक्त हुए हैं। प्रेम, प्रेम को पाकर इठलाता भी है, अधिकार भी जताता है और अपने प्रेम समर्पण को औरों से अधिक गहनतम भी बताता है...स्वाभाविक ही है:

“ऐसे तो न कहो
हो सकता है
तुम्हें पता न चला हो
कितनों-कितनों ने
तुम्हें चाहा हो
चुपके से
मै तो
रोक नही पाई न
खुद को खुद से...!”

मैंने देखा, देखती ही ना रह गई, चल पड़ी समाने तुम में........! है ना, ऐसा ही कुछ।

दूसरी प्रकार की कविताओं में कवि ने प्रेम के लक्ष्य को स्पष्टतया उकेरा है:


“तो चलें
उस दिशा में
जहाँ जीवन और प्यार
प्रत्यक्ष होने की प्रतीक्षा में हैं...!”

प्रेम में भी भटकना आसान है। दिशाएँ अनंत हैं.......लक्ष्य के लिए नियत दिशा अनिवार्य है...उपयुक्त दिशा की कसौटी है जीवंत प्रेम की उपलब्धता......!!! बंधु; यहाँ साधन-साध्य-सिद्धान्त में अंतर ना कर बैठना, डूब जाओगे...! लक्ष्य स्पष्ट होने के बाद देखिये कितना दृढ़ है वो:

“कर न लेना
कहीं प्यार
टूट न जाए
भरम  ऐतबार का
हम तो
कर भी लिए
टूटता है टूटा करे
भरम  ऐतबार का”

प्रेम तो शुद्ध प्रेम होता है, वह परिणाम की परवाह क्यो करेगा...! प्रेमी को बस प्रेम से मतलब....! प्रेम की समस्त पीड़ा और समस्त संतोष भी तो प्रेम ही है....! बूंद ये तो नहीं सोचती कि वो कुछ न रह जाएगी समद में.....!

कविताओं के तीसरे प्रकार के भीतर प्रेम में सहज समर्पण का निरूपण हुआ है। समर्पण बिना तो प्रेम अपने असल रूप में आने ही नहीं पाता। बड़े अभागे हैं वे लोग जो बिन समर्पण प्यार की आग में कूद पड़े और नाहक ही झूलसते रहे। आह, उन्हें तो प्रेम के सहज रूप को महसूसना भी नसीब ना हुआ।

“एक अनलिखा ख़त
बाकी है
सोचती हूँ
लिख ही दूँ तुम्हारे नाम.
...................................
लिखना है ये भी
जब तुम आओगे
और कहोगे 'चाँद'
मैं छन् से बिखर जाऊँगी...!”

पूर्ण समर्पण में कवि को कहना है कि- तुमसे ही है सारे दर्द और तुम में ही हैं सारे मर्ज भी....तुम बिन सारी चेतना भी संज्ञा शून्य सी...! तुम ही भरते हो सारे प्राण...! ये सब सच तुमसे कहूँ तो तुम मानोगे नहीं, लिख देती हूँ, शायद कभी पढ़ो.....!

समर्पण के पश्चात चौथी प्रकार की कविताओं में प्रेम की सूक्ष्मतम, गहनतम एवं पवित्रतम अनुभूतियों की अभिव्यक्ति हुई है। इन कविताओं में प्रेम के अनन्य भावों महसूसने और उन्हें सँजोने की चेष्टा है। किन्तु इस सँजोने में भी पवित्रता है क्योंकि उसमें भावों की उदात्तता है, स्वार्थ लेश मात्र भी नहीं :

“हे मेरे स्त्रीत्व
मेरे सृष्टि-कर्म
नवसृजन के मेरे अभिमान
आनंद की सार्थकता
सार्थकता के आनंद
मेरी मुक्ति मेरे ज्ञान
तुझे लिखते समय
जितनी भी
अनिर्वचनीय पुलक है
सब संजो लेना चाहती हूँ...!”

अपनी इयत्ता को समझना ही मुश्किल, फिर इयत्ता के महत्वपूर्ण आयाम को समझना और भी मुश्किल...और ये देखिये ....संजोना उसे नहीं है जो जाना-सीखा है अपितु संजोना है साझा करने के सुख को .....!. ये एक बेहद महत्वपूर्ण कविता है । इसके प्रति-एक शब्द पर व्याख्यायें हो सकती है। इतनी मितव्ययिता से इतने वृहद आयामों वाली कविता के कवि को प्रणाम करता हूँ।
 अपने पांचवें प्रकार में कविताओं में प्रेम का विस्तार ससीम से असीम तक हुआ है।

“तू तो
भगीरथ का तप है
शिव जटा में उतरी
अमृत की पुण्य-धारा है
इतने असमंजस ना पाल
अलकनंदा
स्वयं में उतर
और जान
कि तू कौन है
पता नहीं कबसे तू
कितनों की प्रतीक्षा है.!”

प्रेम का विराट स्वरूप.....तुम समस्त समद की हो.....मिटों, बूंद हो कि बूंद ही ना खोजो.....!

ऐसा नहीं है कि इस सुंदरतम प्रेम यात्रा में कवि यथार्थ से नहीं टकराता, या कभी निराश नहीं होता या फिर उसे नाना संघर्ष नहीं करना पड़ता, उसे पता है, ये सभी प्रेम के ही अनन्य भाग हैं, पर कवि की कविता समस्त बाधाओं से लड़-भीड़ कर अपना प्राप्य चुन लेती है। छठी प्रकार की कवितायें ऐसी ही हैं जिसमें प्रेम यथार्थ से टकराता भी है और उनसे सवाल-जवाब भी करता है और यथार्थ के थपेड़ों से उबर कर उनपर विजय प्राप्त कर स्वयं को शाश्वत भी कर लेता है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं:

“लिखे थे
हमने भी कई बार कई ख़त
पसीने और आंसुओं से
नक्काशी थी उनकी इबारत

हर बार
चिंदी-चिंदी होते रहे
(मजबूर हाथो में जड़े )
वर्जनाओं के आरे में

और
अब हम लिखते हैं
सारे ख़त
तमाम वर्जनाओं के नाम
उनमे छिपा रखे हैं हमने
छोटे-छोटे प्रेम

वर्जनाओं की दुनिया में
बड़ी खलबली है इन दिनों ...”

प्रेम की बेड़ियों को बना ली है पतवार....बेड़ियाँ आवाज करें तो करें....! ये है कवि का आत्मविश्वास...!

“प्यार करना
प्रश्न खड़े करता है”
तो करो
प्रश्नों के खड़े कर दो पहाड़
हमारे पास
तुम्हारे सभी प्रश्नों का
एक ही उत्तर है—प्यार...!”
और यह भी देखिये-
“.......पर
हमें जरूरत क्या है
उस दिशा में जाने की
हमारा लक्ष्य तो कुछ और है न
बुल्लेया
तैनू काफर काफर कहंदे नें
तू आहो आहो आख...!”

प्रेम में मायने नहीं रखती औरों की व्याख्या या संशय या प्रश्न ही.....बस वक़्त वक़्त की बात है..समाना तो प्रियतम तुममे ही है....!

“शब्द उदधि की
इस गोताखोरी में
तुम एकमात्र
आश्वस्ति हो मेरी
मुझे तो सांस लेने की भी फुर्सत नहीं
एक के बाद एक अभियान
जो मिलता है समेट लाता हूँ
तेरे चरणों में ढेर लगाता हूँ
अब तू जान तेरा काम जाने
कहाँ किस शिला को बिठाना है
कहाँ क्या उगाना है
किस मानिक को कहाँ छुपाना है
फुर्सत तो तेरे पास भी नहीं
मुझे देखने की
फिर भी कनखियों से
हम देख ही लेते हैं इक-दूजे को
कैसी तृप्ति...!

कवि ने दिखा दिया है कि इस आपा-धापी के युग में भी अगाध प्रेम संभव है। यथार्थ उसे यूं ही नही कुचल सकता। जीवन संघर्ष में प्रेम अवकाश उतना ही तृप्तिदायक..... जितना भी मिल जाये चीजों को जुटाने और उन्हें सजाने के दरम्यान......!

“कहाँ हो ?
कविता में...
तभी से ?...
बहुत रह लिए
कविता में
अब मेरे होकर रहो न...!”

प्रियतम अब आ जाओ जीवन में......!!!

“चल चलें फिर से
दिल के उसी कोने में
जहां              
बिन कहे-सुने 
सब समझ में आता है
शोर में डूबी
इस दुनिया में
आखिर रखा क्या है
याद है
दिल का वह कोना
जहाँ बरसाए थे तुम
अमृत उस दिन
वह गर्माहट 
अब क्यों नहीं है तुझमें..?”

इसतरह कवि प्रेम के उतार-चढ़ाव से वाकिफ है। उसे पता है कि पूर्व प्रधानमंत्री वी॰ पी॰ सिंह के शब्दों में-“कमबख्त प्रेम की केतली बार-बार गरमानी पड़ती है....।”

“वह ऐसा क्यूँ था
उसने ऐसा क्यूँ किया
ऐसा न होता तो क्या होता
जो जैसा है
उसे हम वैसा ही
क्यों नहीं स्वीकार पाते ?
हमें
प्यार करना क्यों नहीं आता...?

प्रेम सहजता में होता है...पर जाना कवि ने ‘सहजता’ इतनी सरल बात नहीं...तभी तो हमें प्यार करना भी नहीं आया....!

“तुम जानते हो बहुत बड़ी हूँ
पर तुम्हारे
संकुचित विचारों के कारण
हूँ यहाँ...गमले में सजी
छोड़ के देखो मुझे
खुली जमीन में
नजरें उठानी पडें
टोपी सम्भालते हुए
और वही तुम नहीं चाहते
तुम्हारी आशंकाएं
निराधार भी नहीं हैं
क्या बनेगा
तुम्हारी शान
और अहंकार का
जो गमले से निकल
पा लीं मैंने जमीन
और छू लिया आसमान...!”

कवि, समस्त स्त्री विमर्श से परिचित है और बड़ी बारीकी से उनकी जटिलताओं को अन्य कई कविताओं के साथ ही साथ उपर्युक्त कविता में भी उसने व्यक्त भी किया है।

“वह तो हर कदम
पुकारती रही
तुमने सुना ही नहीं
नज़रें नीचे किये चलते रहे
वह तो हर तरफ
फैली थी खुशबू सी
दुनियादारी ने
तुम्हें कुछ भी सूंघने से
वंचित कर रखा था
वह तो आस लगाए
तकती थी तेरी राह
और तुम जुगनुओं के पीछे
जाने कहाँ से
किधर को भटका किये
और यों वक्त की मुट्ठी से
जिंदगी के
छोटे-छोटे पल-छिन
छूटते फिसलते
बिखरते रहे ...!”

कवि जैसे कहना चाह रहा हो, तुम्हारे ना समझने से मै भी तड़पती रही उम्र भर, मंडराती रही तुम्हारे हर ओर पर ...तुम्हारे भटकने से मुझे भी कहाँ मिला ठौर...!
इस तरह कवि यथार्थ का सामना उतनी ही कुशलता से करता है, जितनी बारीकी से प्रेम को महसूसता है। यहाँ कवि की दार्शनिक सर्वांगीड़ता प्रशंसनीय है।

       कुल मिलाकर, यह संकलन प्रेम की विविध रूपों, उसके विविध आकर्षणों, उसमें निहित नाना प्रश्नो एवं अंततः उसके मुख्य उद्देश्य एकाकार को बड़े ही स्निग्धता एवं सहजता से उभारता है। प्रेम के बहाने दरअसल कवि जीवन दर्शन के अन्यान्य पट खोल देता है। यह कवि एक और सहज उपलब्धि है। मै कवि को उसकी ईमानदारी एवं उसकी लेखकीय प्रतिभा के लिए बधाई देता हूँ। मै व्यक्तिगत तौर पर पाठकों को आश्वस्त करना चाहता हूँ, उन्हें निश्चित ही, एक शुद्धतम व स्निग्धतम प्रेम कवितायें रसास्वादन के लिए मिलने वाली हैं, जो सहज ही जीवन-मूल्य भी उकेरने में सक्षम हैं।

*डॉ. श्रीश 

(अद्भुत कविताओं का संकलन रूप में आना श्याम जुनेजा जी की प्रेरणा से संभव हुआ एवं यह समीक्षा भी मैंने उन्हीं के आदेश से लिखी-डॉ. श्रीश )